उज्जवल श्रीप्रियाजु
उज्ज्ज्वलस्मिता
(मस्कुराहट)
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नवीन शब्द यह उज्ज्ज्वलस्मिता... है न । मुस्कान प्यारी श्रीश्यामा जु की ...जीवन निधि श्रीप्रियतम की । ...नव भाव धारा श्री निकुंजन की । ...प्रियतम हृदय के सम्पूर्ण राग का श्रृंगार श्रीप्रियाजु जु की उज्ज्ज्वलस्मिता ...श्रृंगार का श्रृंगार । प्यारी सी प्यारी यह अधर प्रफुल्लित छटा ।...नवस्फुरणा है सम्पूर्ण श्रीविपिनराज में यह उज्ज्ज्वलस्मिता । ...नवराग ...नवभाव ...नवरस ...नवरंग ...नवतरँग ... नव नव होते प्रति मुस्कुनिया प्यारी जु की श्री प्यारे मनहर । ...मनहर प्रियवर के मन का ही नहीं सम्पूर्ण भावावेश अनुरागित अनन्त हृदयस्थ तृषाओं की का हरण कर लेती है यह उज्ज्ज्वलस्मिता (मुस्कान) । ...श्री विपिन की प्रति रेणुका की अबाध वरद निधि है यह प्यारी जु की उज्ज्वलस्मिता ।
विपिन विहार के रसातुर जो नित्य निरख रहें इस परम् सौभाग्य निधि को वें जानते ...नितांत परमोच्च सुख प्रीति का यह स्फुरण शिखर प्रियतम के हिय को कितना जीवनदायी रिझावन से अभिषेक करती है ...श्रीप्रियाजु उज्ज्ज्वलस्मिता ।
उज्ज्वल...उज्ज्वल रस की खान समेटे उज्ज्वल हुई जिनकी त्रिभंगी रसमूर्ति... प्यारे श्यामसुंदर ! प्यारे जु की उज्ज्वल सारिका... रसीली रतनारी अनियारी रूपराशि अति नागरी उज्ज्वल गौरांगी प्यारी जु...
प्यारी जु की रूपमाधुरीसुधा का पान करते श्रीनीलमणि... और कोटि चंद्रमणि से सजी सहचरिन... !
श्यामा जु की तनिक निरखन से पुष्प पल्लवित हो उठते जहाँ ...निरख कर किंचित मुस्करा देतीं तो सखी... वहाँ तो मकरन्द रस स्वतः झरित होता और अनंतानंत रसपिपासु तृषित भ्रमर ढुरक ढुरक कर चमत्कृत होते रहते।
श्रृंगार की पूर्णता यह उज्ज्ज्वलस्मिता... यह प्रफुल्ल मुस्कान... ना री पूर्णता ही नहीं ... श्रृंगार को श्रृंगार यह मुस्कनिया प्यारी जु की...
अहा ! प्यारी श्यामा जु की मुस्कन... जिसे सखियाँ पूर्ण दर्शन कर सेवामय सजाती निखारती रहतीं....ऐसी सुकुमल रस की धुरी सखियों के निहारन सौभाग्य पर स्वयं अखिल सौंदर्य माधुर्य के रसिक श्यामसुंदर बलिहारी जाते और अपलक प्यारी मुस्कन को निहार सकें ऐसे परमसुख की याचना करते रहते।
सखी...श्यामा जु की मुस्कान जैसे विद्युल्लता... आसमान में घनश्याम छाए हों और उन संग दामिनी सी कौंध जाए तो मानो रस प्रवाह से उछल्लित उग्र होतीं घन तरंगों को बहाव से किंचित ठहराव देती यह चमत्कृत माधुरी मुस्कान जो रेखा की भाँति खिंच सी जाती घनश्याम हिय पर और हटाए ना हटती।ऐसी मोहिनी बिखेरती कि स्वै विस्मृति अनंत कोटि रसिक शिरोमणि श्यामसुंदर ढुरक पड़ते इनके अनियारे अति प्रिय मुस्कन थिरकन से सुशोभित मुखचंद्रमा पर...
श्यामा जु के रूपरंग की आभा जिस पर सूर्य चंद्र भी स्थूल मणि सम फीके प्रतीत होते वहाँ ताम्बूली अधर और उन पर यह मधुरातिमधुर मंद मुस्कन जो रस से सनी हुई उनके रसप्लावित अधरों के मध्य भाग को तनिक सिहराती तो रससमुंद्र के हियपटल पर मधुर सरगम सी छिड़ जाती... वे श्यामसुंदर अधरों से वंशी हटा लेते... उस मंदस्मित छेड़न के भार से ही नन्ही सी हया की लाली पर लाल जु के नेत्र सजल व व्याकुल बने रहते।
रोम रोम में पुलकन... लाल जु के नयन अपलक निहारते इस मुस्कन को और मुस्कन पुलकन से सखी सहचरी के हृदयकंवल पर खिले रंग में श्यामा जु के कपोलों पर धीरे से बिखरते रस लालित्य में श्यामल अर्धखुले उज्ज्वल रससार अधर पूर्ण कमलिनी को खिला देते... और पुलक पुलक सम्पूर्ण माधुर्य रस परम उज्ज्वलता को बिखेरता रसमग्न श्रीवृदाविपिन को अभयदान देता जिससे प्रियतम हियकमल पर रस मकरंद अनवरत झरते... कहीं विश्राम ना पाते जैसे दामिनी ने तनिक अपनी मधुरिमा बिखेर दी और उत्तरोतर घन बरस पड़ें।
श्यामा जु की अति कमनिय मृदुल मुस्कन पर श्यामसुंदर कोटि कोटि कामबाणों से घायल श्यामा जु के चरणकमलों की स्वर्णिम धरा पर लुण्ठित होते रहते...
प्यारी जु की यह सहज सरसीली मुस्कान श्याम हृदय में अनवरत गहरी होती रहती...श्यामा जु जो नित्य नवरूप लावण्य की राशि हैं ...वे अपनी मुस्कन और मधुर अति सुकोमल भाव भंगिमाओं से प्रियतम का मन हरती रहतीं हैं जिससे श्यामसुंदर सहज अपहृत हियकंवल पर नव नव रस लालसाओं के निरंतर आगमन निर्झरन से पुलकितमना प्रिया जु की नित्य नूतन रूप छबि सिन्धु की रसतरंगों पर बिजुरिया सी मुस्कन पर रीझ रीझ उनके चरणकमलों में लोटते रहते हैं।
और... वे पल पल रसतृषा से अकुलाए इन उज्ज्वलस्मिता की सींवा राशि श्यामा जु के अधर मधुर की मुस्कन का रसपान करते रसझरित शीश मयूर चंद्रिका को श्रीप्रिया जु के चरणों में ढुरकाते रहते हैं ... नित नव रस ललायित भावपल्लवों को खिलाती श्यामा जु की मधुर मुस्कन जिसकी निरखन से श्यामसुंदर का हृदय बाणों के रसाघात जैसे नव नव बिंधते रसलालित्य से याचना करते रहते अबहीं और अबहीं और... जैसे मद में चूर मधुकर ...अहा !
बलिहार रसमकरंद झरिता उज्ज्वलस्मिता श्यामा जु पर... बलिहार नित नव मनोरम रस की मुस्कन पुलकन पर... श्यामसर्वस्व अपहृता पर बलिहारी...
स्मरण करते है वेणुगोपाल प्यारी के मुख छटा को नवरागिनियों से सजाती इस उज्ज्ज्वलस्मिता का और कहते है ...एक बूंद हूँ छलकी हुयी तुम्हारे हृदय से , मात्र एक बूंद... तुम्हारी मुस्कान यह उद्घोष कर रही प्यारी । केवल मैं जानता हूँ हर एक मुस्कान पर यह कृष्ण नव होता है... अनन्त कृष्णों को अनन्त जीवन देती मुझमें तुम्हारी यह उज्ज्वलस्मिता । कैसी है तुम्हारी मुस्कान ...कैसे कहुँ... कभी देख ही न पाया तो वर्णन करुँ कैसे , कि कैसी है वह उज्जवलस्मिता... बस इतना पता कि मेरे जीवन का प्राणों का नव-नवपोषण है यह स्मित तुम्हारा... ... यह ऐसा रस है मेरे जीवन का जो मैं कभी पूर्ण निरख ही न पाया... तुम्हारी मुस्कान का चिंतन ही मेरे रोमावलियों को पुलकित कर देता है... मेरे नयन सजल हो उठते ...अनवरत निहारती पलकें ढुलक जाती! (...आह सखी देख ! गहन पुलकन श्रीप्रियतम रोमावलियों में) ...यह पुलकन कपंन हो मेरी संपूर्ण देह को अवश आवेशित प्रायः रह जाती प्यारी सन्मुख है (चुम्बकीयकर्षण सी दशा) ...और मेरी चेतना न जाने कहाँ-कौनसे अनन्त रससिंधु में डूबने लगती है । ...हे प्रियतमे ! मेरा रोम-रोम तुम्हारी मुस्कान से झरते रस को पीने की चेष्टा करता है परंतु प्यारी इस महान रस को समेटने में , मैं सर्वथा अक्षम हो जाता हूँ... ...तुम्हारी यह मधुर स्मित मेरे संपूर्ण अस्तित्व को आत्मसात् कर लेती है...कृष्णहरे श्रीराधा ... तब.. कौन मैं ...कहाँ मैं ...सुधि- बुधि ही बिसर जाती है और पुनः एक भृक्षेप तुम्हारा मुझे नव जीवन राग देता तव हरित यह कृष्ण , विनय करें है री ...हे स्वामिनी कबहुँ तोरी वह उज्जवल स्मिता मेरे नेत्रों का विषय बनेगी... कबहूं स्मिता के स्मित रहस्य से यह कृष्ण उज्ज्वल होगा । ...कब निरख सकुंगा मेरे प्राणों की पोषण उस मंदमधुर मुस्कान को... कब कह सकुंगा कि कैसी है वह उज्ज्वलस्मिता ... !!! *श्री नित्यविपिनवन में तो प्रति तितली ...प्रति फूल ...एक-एक सखी ही ना ...एक-एक रेणुका से ...प्रियतम पूछते तृषित दृगन से ...कैसी है मो प्यारी की उज्ज्वलस्मिता ।।* जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।। DO NOT SHARE ...
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