*चपलांगी श्रीप्यारी नवघनदामिनि जु*
दामिनी ... शीतल शरद नभ पर विद्युततरँग की यह चपलता नवघन के हिय को दमकाती झलक-झलक से । ... प्रेम की यह अधीश्वरी कैसे सरल प्रीत पिपासु रसिक नागर की नागरता को हर लेती ... यह रसिक वाणी सहजता से जी लेती ... प्रीत की रीत रँगीलोई जाने । फिर नागरता की रासि किशोरी... रसिक नागर के नवरागानुराग को तृप्त करने को यह स्वभाविक दामिनी हुई जा रही , आन्तरिक चपलत्व है ही कहाँ इस चपलांगी के पास । ... पिय-रिझन की नवनव लज्जा इनकी अंग-अंग की चपलता हो उठी । ... धारण करें वह राधा । किसे ? ...मनहर को ! ... नवघन धारण होते ही दामिनी सँग है और प्रीतवर्षा घनदामिनि की ... वही प्रीत-वर्षा युगल के चपल मिलन की जीव-तृषा ।
अंग-चपल या चपल-अंग ...घन नहीँ ..नवघन यह श्यामसुंदर का हिय रसवदना प्यारीजु की नित-नव चपलताओं से त्रिभंग होता ...और द्रवित हिय मदनमोहन श्रीकिशोरी जु के बंकिम नयन कोर से झरती कटाक्ष जैसे स्वयं झरते श्रीप्रिया पद-राग होने को ...
नवअनुराग नवल दुतिदामिनी नव चपले भरि-चली , हे रस भामिनी ...
नित नव लजिली ,भरि सुघड छवि सजीली , दामिनी रँगीली भई सखी , हे पियउरस्वामिनी ।।
श्रीप्यारीजु के रतनारे नयनों की चपलता जैसे दामिनियों की पाठशाला ... घनदामिनि स्वयं स्तब्ध ! ...चपलता स्वयं स्तब्ध इन चपल नयनों की अनुराग वर्षण पर दमकती अंग कांति पर । यह दमकन रहस्य भरी , रागिनियाँ झरती जहां ...वहाँ उज्ज्वल रागात्मिका प्यारी माधुर्य की वर्षा कर रही मधुकर पिय पर। भँवर पुष्प रस पान करने को आतुर ...यहाँ पुष्पों का समुद्र बरस रहा भँवर पर प्रीत लुटाने को ... सम्पूर्ण प्यारी जु के प्रेम बन बरस जाने पर हिय चौंध जाता ... !! सखी प्यारे जु के नयन पी पाते जिस रससुधा को वह मात्र उन्हें दामिनी सी दमकती प्रतीत होती जो उनके हिय के प्रकाश का हरण कर नयनों को अतिप्रकाश में दर्शन शून्य कर देती । ... अति सौंदर्य ही प्यारी जु का ... यह दमकन ...यह चपलन ...
अंग चपल या चपल सुअंगी
नवघन सुंदर ललित त्रिभंगी
द्रवित हिय झर नयन कोर ते
निरख निरख मुखचंद्र चकोर ते
रहस्य ...सुकुमारता ...नववयता ...नव-नव होती भाव-रागिनियों सँग नव-रँग रँगीली होती प्यारी जु के अतिरुपमयता पर मोहित यह मोहन पिय जहां अवाक ... चेतना की उपादेयता भूल स्थिर छबि रह जाते । वह रहस्यों की झारियाँ तो उनके उर-उन्मादिनी हो सजती जाती । ...चपलता की सीमा प्यारी के भ्रू-क्षेप ...ऐसे नयन कहीं है ही कहाँ जिनके निमिष सजती पिय-हिय-सुख से । ...इस मनहर ने बहुत कुछ सजाया , कोटि सृष्टि ही रच दी । एक कठपुतली सच्ची न मिली जो मनहर की ही रही हो । ...अब यह पियप्यारी जु हमारी जिसे मनहर के हिय आह्लाद ने ही दृश्य में उतारना चाहा । और दृश्य कैसा जैसे ... जैसे देखते बनता न हो ... दम-दम दमकती दामिनी । यह दामिनी ही करुण वर्षा कर हिय में समेट लेती निजनिधि को तब होता सुख घनदामिनि मिलन का किसे ... ?? प्रीत पिपासे मयूरों को । ...प्रीत की फुलवारी श्रीवृन्दाविपिन जु को । ...वल्लरियों से उर बाँधती सन्मुख बहने से स्वयं को सम्भालती अलिन के हिय की सहजकुँज को ...
जैसे नयनों की कोर वर्षा करती पिय हिय पर । ...अब हम जड़ता से लेंगे कोर-वर्षा की अनुभूति को । यह वर्षा है ...श्रीप्रियाजु निरखन की जो होती ही मनहर सुख हेतु । ... हो रही बूँद बूँद जैसे अरविन्द की पंखुड़ियों पर रसझर रहा हो ... उपमाएँ युगल रस में पूर्ण होती नहीं । दोऊ के सुख को कह नही सकती कोऊ वाणी । बस निजहिय को उरउन्माद करने हेतु , वरन यह रसझरण में भाव नहीं रखता फुलनियों के हिय दोऊ फूल मिली रह्वे जे ।
जो नयन है ही पिय सुखार्थ वह क्यों न हर ले अपने पिय का मन ... जे मनहर तो हम भोगिन से भी प्रीत ही कर सके न । तो यांको प्रेम वारती प्यारी जु पर स्वयं बलिहारी जाते । प्रीत पिपासे यह , यही दे पाती ...सत्य में । जीव तो युग लगाता समझने में वह वस्तु है किसकी और जब समझ युगल प्रेम सेवा होने की स्थिति पाता तब वह भी कृपा । वरन जीव का भगवत्प्रेम ऐसा जैसे श्रीप्रभु अपहरण कर लिये गए हो । जब जीव उनके अपहरण सुख को आनन्द रूप रस लेता । जबकि वह अब भी युगल सेवातुरता के बिंदु से दूर होने से भक्ति तत्व को भी नही समझता तब श्रीप्रभु स्वयं के अपहरण में प्राकृत सँग प्रेमानुभव करते तब उनकी निज दशा उन्हें निर्मल नव निराब्द्ध प्रीत की वर्षा करती यह कोई रससुधा दामिनी सी चौन्ध जाती उरान्तक सुख में ।
नयन-कटाक्ष ... प्यारी दृगन की बंकी कोर ... सजिली रसिली नवलज्जांकुरों को ताल में थिरकती पिय के हृदय आकाश में यह ज्योत्स्ना सी फैली और यही पिय श्रीचन्द्र-शिरोमणे में आलोक होती ... अर्थात यह रसातुर ब्रह्म की वह शरदोत्सव रजनी स्वयं है जहां भीतर से बाहर समस्त प्रकाश यहीं ही है , तब श्यामघन का निज प्रकाश सामर्थ्य नहीँ रखता यह चपल नयन ईश्वर से परे ईश्वरत्व रखते है ...मधुता । ईश्वर का ईश्वर है ... यह प्रेम का चापल्य ।
कलानिधि पूर्ण कलामय हुए ही प्रिया भ्रू-क्षेप के स्वयं पर गिरने से है । हम श्री नित्यवृन्दावन श्रीबिहारी जु जो अपने ऐश्वर्य से द्वारिकाधीश है , इन प्राणेश्वरी रमण प्यारेजु के इसी सौभाग्य की पुजारिन है ... चपलांगी की दृग कोर इस नटवर पर कितनी बरसी । यह नवघनश्याम क्या इस उज्ज्वले में कहीं खो तो नहीं गए । ... प्रेम का श्रृंगार - विवर्त है ।... यहीं रहस्य कोई प्रेमपुजारी के हृदय में उतरता । परस्पर निजश्रृंगार सुख दृगन की कोर न झरे तो मनहर प्रभाती में मनहरी सी कैसे सजें । यह पियप्यारी का श्रृंगारोत्सव है दृग कोर परस्पर हो जाना जीवन । श्यामा का श्याम ... श्याम का श्यामा । और इस श्रृंगार पर ही कृष्णचन्द्र शरदचंद्र हो जाते है ... उज्ज्वलता की दामिनी झरने से ।
प्रेमरजनी में डूबे रसपिय का हिय आकाश दमक जाता प्यारी के नयनों की स्वयं पर झरण मात्र से । वें जान जाते यह दामिनी मेरे हिय सुख की स्वतन्त्र श्रीउज्ज्वलित श्रीविग्रहा है । इस श्रीप्रियाजु रूपी श्रृंगार को मैने नही पाया यह ही करुणा कर मुझ पर बरस रही रजनी में खोए हिय आकाश में यही दामिनी मेरी मूल संजीवनी । श्रीप्रियाजु विद्युत-दामिनी की गुरुमूर्ति ... नयन कोर से जिसने सर्वस्व के सर्वस्व की विस्मृति करा दी । मन को ही नहीं हरती यह चौंध ... मनहर पिय ही खो गए इस चौन्ध मे कहीं...जो झलकते भी तो इस दामिनी को पुकारने से ... देखो री प्यारिजु इस पट में ... प्यारी निरखते नयनों की कोर बने ... मनहरिणी के मनहर । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।।
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