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निधि की निधिन गाढ़ रस , संगिनी जु

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"व्रज नव तरुणि कदंब मुकुट-मणि, श्यामा आजु बनी।
नखसिख लौं अंग-अंग माधुरी,मोहे श्याम-धनी।।"

साँझ ढली...नीलकमलदल पर गहरे कारे बादर घिर आए री...सावन की बूँद ने सिंगार कर दिया कनकलता का... ... ...
रस सिन्धु ने उमड़ते हुए सैलाब से एक बूँद बिंदिया आंक दी...और सम्पूर्ण रसदेह रोमावली खिल उठी...समस्त निधिन की निधि का सिंगार... ... ...
अहा...कैसा होगा ना जैसे पीतवर्णा पर नीलाभा और उस पर भी मधुर लालिमा लिए रसीली प्रेमबूंदन से सजीली जरकीली कनकबेल...सितारों का सा सिंगार लिए...
ऐसी थिरकन कि ताल मृदंग स्वतः बज उठे जैसे घन मृदंग और कोकिल सम कूजत सब अंग... ... ...
बंसी बनी कनक काया...सरोज उरज...चंदनचर्चित सघन गलियाँ...रस की बूँदें...भुजंग लिपटे जैसे...हया रिसती...लालित्य झर रहा...मधुर रस बरषन...स्मृति विस्मृति की सेज पर छब भूले हरषत... ... ...
रैन बिसरी...गगरी छलकी...शिशुवत झगरत...रंगरेज मन...कोरे कागज सा तन...स्यामल लट उरझन...मधु झरझर...मयूर पिकन...मतवारी लतन...केस भुजंगन गौरमुख झलकन...रूप अनूप पी सम... ... ...
कनककली तमाल लपटान पुष्प रंगसनी...रसभीनी भ्रमराकर्षिणी...मधुर रस वर्षिणी...अरूण अधर...मुख श्वासनिकासनी...ललित रंग...नगधर संग...सुरति समुंद्र तरिणी... ... ...

अहा...!मृगमारीचिका...सखी...जैसे मृग अपनी नाभि से आती महक को तलाशता यहाँ वहाँ वनविहरन करता रहता है ऐसा ही मनमोहन श्यामसुंदर के संग है री...
सखी...प्रेम और रस...दोऊ देहधारियों का श्रृंगार ना होवै है...पर जब प्रेम स्वयं से रस को अलग कर उसमें डूबने लगे और रस प्रेम पर बलिहारी नेक सर्वस्व विस्मृत कर उसे अपने में भरि लेत है तो जो अभिन्न रसरंग में रचेबसे है उसे सर्वनिधिन की निधि कह्यौ जावै और यह सर्वनिधियों की निधि हैं हमारी प्यारी सुकुमारी रति-रस भरि कनकबेल श्यामा जु...जिनकी नखप्रभा पर कोटिन कोटि निधियाँ प्रणामवत् रस प्रसादी पाती हैं और त्रिभुवन सुंदर श्याम की तो क्या कैसे कही जावे री... ... ...प्यारी जु चरण चापत ना अघावे नटवर हियरसचोर...प्रियतम का लालित्य सौरभ श्यामा जु के अंग अंग से झलक रह्यौ... ... ...श्यामा जु की सुगंध श्यामसुंदर जु के रोम रोम सौं झरै... ... ...अहा !
"राधा प्यारी तू अतरंग भरि..."
अपार माधुर्य से नितनव खिलती नवयौवना रसबेल...मोहिनी...नितनव रस भरनी...नितनव रस झरनी...नितनव रसविहारनि...लाड़िली अलबेली...
"रसिकनी रस में रहत गढ़ी..."
कृष्णप्राणेश्वरी...अधीश्वरी...आराधिका...प्यारी भाँवती श्रीप्रिया...नागरी...परम चतुरा...चपला...करूण...निभृत निकुंज वासिनी...वृंदाविपिन विनोदिनी...
"प्रीतम जीवन-मुरि..."
अहा...!रूप सौंदर्या...सर्वसौभाग्यदायिनी...मृगनयनी...पिकबैनी...गजगामिनी...मृदु हासिनी...अधरसुधा वर्षिणी...पिय हिय मोद प्रकासिनी...नवऋतु मधुपान...मदनमनरिझाविनी...केलिरस गाविनी...मीठी मधुर तानिनी...प्रेमविलासिनी...
"श्रीवृदाविपिन विहारणी नीलकमल धारिणी..."
सुख तरंगिनि...श्याम रंग रंगिनी...श्यामामृत महासिंधु...तीव्रसंगम वेगिनी... सारभूत रसनिधि...
सखी...प्रभात की पहली किरण पड़ते ही जब यह कुमुदिनि पियम्रमर संग अर्धनिमलित पलक पंखुड़ी उठातीं हैं तो समस्त निधियाँ इनकी नयनकोर से बहते करूण प्रेमरस की साक्षी प्रियमनभावन श्यामसुंदर को इनमें स्वैचित्त भुला अंक में समाए हुए पातीं हैं...इनका सर्वनिधिसम्पन्न नीलाम्बर...प्रेमरस रंगसनी लाल कंचुकि...पीतरसदेह पर रसस्कित लालित्य युक्त अधर रत्न...कजरारे चकोरवत अनियारे नेत्र... जावकजुत चरण...अंग अनंग रसधारिणी कमलिनी खिल कर स्वागत करती है अपनी अनंत सखी सहचरियों का जो इस कुमुदिनी की रसपंखड़ियाँ हैं और जो इन कमलफल की मकरंद सेज पर सजे मिलित युगल रससार का घणीभूत दर्शन पातीं हैं...और इन निधि के आभामंडल से एक नन्ही सी रसबूँद हरित कर देती है वृंदावन की कुंजों निकुंजों की मंद मधुर ब्यार से भींजन सेवा करती रसजलवृष्टि से जिससे चहक उठते मयूर पिक मैना और सरगमें झूम कर मंगलगीत गा उठतीं परमनिधि के रूपलावण्य को...झर झर...रसवर्षा में भीगते मधुर पलकों में झूलती यह नीलाभा कमल पर रसहिंडोरे झूलनी...समस्त चराचर की प्राणवल्लभा और प्रियमन की प्राणसंजीवनी... ... ...
"रूपबेल प्यारी बनी,प्रीतम प्रेम तमाल
दोऊ मन मिलि एक भए श्रीराधावल्लभलाल
लपट रहै दोऊ लाड़ले अलबेली लपटान
रूपबेलि उरझ परि प्रेम सेज पर आन"

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