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संगिनी सरस् भाविनी लहरियाँ

रात्रि की काली अंधियारी पर शीतल अनियारी चादर पर सितारेनुमा पुष्प बिखरे हैं और चंद्र ...चंद्र !सखी.... अपनी मनमत्त चाल को भूल एक जगह स्थापित एकटक निहार रहा है...हतप्रभ !!जैसे इसकी निशाकालीन सुसज्जित चादर पर नील नखचंद्र के शौभायमान प्रभामंडल से पूजित सेवित प्रेमसींचित प्यारी मधुर रस से संवरित चकोरी का चकोर की नयनाभिराम निहारन से प्राक्टय हुआ हो और इन चंद्रद्दति को विन्निंदित करती प्यारे प्यारी चकोरवत नयनों ने इस चादर को सुघर प्रेमसेज का रूप दे दिया...
रात्रि के महामौन में युगल चकोर चकोरी क्रीड़ावत सुकेलि विहार में मग्न सेज पर खेलते रहे जैसे श्यामवर्ण अम्बर के विशाल प्रेमसमुंद्र पर नवगौरवर्ण कलियाँ प्रतिस्थापित हो रसमग्न तैर रहीं....

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स्वयं निशा व निशा का श्रृंगार इन चकोर चकोरी को निहारता मंद मंद पर पूर्ण जड़ता को प्राप्त हो चुका।इनके अति मधुर गहन सुरतांत रसाट्ठकेलियों से अन्यत्र सभी प्रकाश व सौंदर्य सौभाग्य युक्त चंद्र सितारे मध्धम होते होते सुषुप्ति की गहरी निद्रा में ....
यह अर्धरात्रि के कमल कमलिनी पूर्ण रैना विथकित रसरूप बहते सिहरते मचलते इतराते रहे...और रसपिपासु रस की चरम सीमाओं को छूकर जैसे ही कुछ पलों के लिए शांत विश्रामित हुए कि बिन नूपुर पायल व मौन उषा में सुगंधित बिखरे इनकी प्रेम वर्षा से भीगे ओस के रसकणों ने झिलमिलाना आरम्भ कर दिया और इस अति गहन रसबल्लरियों की तनिक झलमलान से मौनवत्त प्रकृति करवट लेती और नन्ही कलियाँ अति सुकुमलता से चटकने लगीं.....
सखी...चटकन मात्र से चकोरी के नयनों ने किंचित थिरकन से जैसे चकोर के हियकंवल को फिर से रससमप्लावित कर खिला दिया...
अहा !!जैसे भोर विश्रामित हो ऐसे सुंदर सलोने दो नयन शांतचित्त उसे निहार रहे...निशा तो सुषुप्तियों में विलीन है और भोर के आगमन को अनुमति नहीं जैसे प्रेमनिंद्रित आलस्य भरे चकोरी के नयनों को छूने की।
मौन निहारन ...रस से प्रफुल्लित छके दो नयनों की मौन निहारन... जिसमें सम्मुख मुंदे रसीले नयनों की कैद में पड़ी चाँदनी के तनिक सी थिरकन से मणिजटित मुकुटशिरोमणि ललाट चमक उठा।
जयजय...

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धीरे धीरे नेत्र खुले और अलसाती महकती सी नयनों को सुख देती रूपमाधुरी ने जैसे ही निहारा तो श्वेत अमृतरस में भीगे मुकुटमणि का रंग आसमान की नीलिमा को छू कर प्रकाशमान हो उठा और प्रेम रस में नहाई श्यामलता की लालिमा में फिर से डूबने को आतुर पर संकोचवश मौन...चरणों में दृष्टि टिकाए हुए।जैसे सूर्य की मधुर शीतल भोर की रश्मियों का आगमन हो रहा और प्राणप्रियतम उनकी आवन पर स्वयं नीलवस्त्र हो बिछ रहे ...
उज्ज्वलता में सनी रूपमाधुरी की अनंत कोटि उज्ज्वलरसीली छवि के समक्ष सुरतरण जीत कर भी हारा हुआ रस संग्रामिणी के चरणों में अतृप्त ही ....
भृकुटिविलास से चरणों में ढुरक रहा ...जैसे सजल नयन खुलते ही रस नयना से टकरा कर उलझन में झुक गए...
चकोरी ने चंचल चितवन से प्रियतम की ओर किंचित निहारा और उनकी विदशा पर मंद मुस्कान सी बिखेर दी...
अहा !!मुस्कन से अर्धखिले अनियारे अधरों की मध्य रेख पर बलिहारी सुंदरवर ...हियकंवल पूर्ण खिल उठा इस मुस्कन की मधुर थिरकन पर जैसे अनुमति सी मिल गई हो रसपिपासु को रसविवश करती कौंधती दामिनी की ...
ऐसी उज्ज्वलता पर सर्व दिशाएँ नवसिंगारित होतीं पुष्प पुष्प डाली डाली को नवरस में डुबो कर जागृत करने लगी और सुषुप्ति को अलविदा कहती अनंत रसतरंगें बिखरने लगीं...

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मुकुटमणि के नवसरसित नवप्लावित रस की चमक से आसमान में अति श्वेत लहरें सी तरंगायित हो रही हैं ...मुखकंवल पर अभिसार रतिचिन्ह.... रस से भीगे नेत्र.... पर प्यासे अब भी.... ताक रहे अपनी प्रिया को अर्धनिमलित अपलक नेह की ढुरकन मुस्कन से...
अद्भुत  !रूप की राशि को अनवरत पीकर छका हुआ पर तृषित ही....
इधर चकोरी के रतनारे कमलदल लोचन किंचित आहटवशतः खुलने को पर आतुर नहीं... अलसाय से...प्रीतस्पर्धा में प्रियतम को संतुष्ट जान और रस की अति को भीतर समेटे हुए मंदस्मित विशाल दृगलोचन जहाँ कज्जल की रेखा बिखर कर गंडप्रदेश से कर्णों को छू रही....ऐसे अनंत रतिरस से भीगे व अस्तव्विस्त रतिचिन्ह....अलकों से उलझे ढंके चपल चंचल नयनों को देख प्रियतम ना अघाते...अधरों की लालिमा कपोलों पर बरस रही जैसे भोर सुंदर पूर्व की शशिकांति में निमज्जित लालिमा...
जड़ता पसरी हुई अभी....क्योंकि जिस अतिरस की राशि ने स्वयं सुंदर श्याम रात्रि को जड़ कर दिया वहाँ प्रकृति कैसे सुषुप्ति से जागे।पर रस से विभोर सराबोर ओस की बूँदों ने नयनों के रस से ढुरकी भारी पलकों को मंद मंद सहलाना आरम्भ किया और उधर रूपरसरंग से छके चकोर के नयनों ने भीतर भरे अतिरस में बहना....ऐसा सौंदर्य माधुर्य जिस पर स्वयं के रसरंग खिल खिल कर जैसे उलाहने दे रहे ....प्रियतम तनिक सी भृकुटि की रस सनी थिरकन से सिहर कर चरणों में आ बैठे कि जैसे अभी अभी ही तो पूर्ण चाँदनी की रात्रि खिली और अभी ही यह उषा....और वही तृषा अभी भी....आह !

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