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नवरागिनी , संगिनी जु

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नवरागिनी

ए री कबहुं निरखो तो री...ऐसी प्रीति सुहावनी करत पियप्यारी ...लालहि बस करनी...अहा !मदन मद हरनी...
सखी श्रीवृंदाटवी के अति सुमधुर प्रेम धरातल पर जहाँ कमल पुष्प धारिणी श्यामा जु...अति कोमल उज्ज्वल अंगों वाली श्रीवृषभानु नंदिनी स्वर्ण लता को भी विनिन्दित किए विराजमान हैं ...सुंदरतम पद्मश्री मुखिनी ....कुंदकलियों सम दंतावली वाली...बन्धूक पुष्प से भी सुरख लाल इनके सुकोमल फरकीले अधर...नीलकमल सम रतनारे कजरारे विशाल नेत्र...
नीलकमल...हाँ री नीलकमल ...वही तो भरे रचेबसे इन रतनारे नयनों में सखी ...और इतने गहरे कि झील सी आँखों में प्रेम भ्रमर भ्रमण करते इन रमणी के हिय में उतरकर इन्हें निहारते.. हाय !!
एक तरफ द्वै नेत्र जो टकटकी से तृषा बढ़ाते और दूसरी तरफ इस निहारन से उज्ज्वल प्रफुल्लित होता रसघन...
सखी ...अधरमधुर राग रागनियों के मध्यस्थ खिले यह नवीन फूल फूलनि...परस्पर उज्ज्वल रस में प्रतिपल लाड़ लड़ाते खेलते रूपसुधा की अनंग दिव्यातीत रसतरंगों में गोते लगाते....
बरनी ना जाए विशुद्ध प्रेम की विशुद्ध शोभा री...जान जैसे भजनान्दि देहधारी द्वै रूप धर एक ही हृदय रूपी बाण से परस्पर रसभेदन करते गहराते रागानुराग से घिरे स्वयं मदन को भी प्रास्त कर रहे....हिय में हियवसित सम पुष्प से खेलते...एक तरफ वेणु और दूसरी तरफ वीणा के राग बंधान....परस्पर रागालाप करते ...सखी...जैसे यमुना के तीरे श्यामवर्ण जलतरंग आए और एक क्षण के लिए स्वर्णकांति में लिपटी संवरी रजअणु सींचना को तनिक स्नान करा कर परत जाए और फिर और और और आगे बढ़ते पूरा रससार कर दे....हियकंवल  से राग कान्हरौ और एक एक कर सर्व तारों को छेड़ते हुए राग मल्हार तक...अहा !!
सखी...अर्धनिमलित उज्ज्वल नीलकमलिनी नयनों से झरती...हिय से रिसती...मकरंद बिखेरती जैसे कस्तुरी कुमकुम एकरसरंग में घुल रहे...रसीले द्वै नयनों में उतर रसीली होती तनिक रागिनी में गहराने लगती और रव छूटते छूटते फिर ताल पकड़ गहराने को...आह !!
एक होड़ सी लगी द्वै सुरन के द्वै गहन प्रतिष्ठित प्रेम रसरंग खिलाड़ियों में परस्पर को हराने की नहीं अपितु जिताने की ....अनंतकोटि आनंद रससार में डुबाने की...जैसे आनंदमद में चूर होते एक से बढ़ कर एक ताल देते और गहराते रस समुंद्र की रसतरंगों में बहते विहरते....जैसे प्रतिपल नव नव नव उज्ज्वल श्रृंगार हो रहा... देहस्पर्श नहीं...परस्पर हियखिलित नव फूल फूलनि का....और इन अति सुमधुर चंचल रसलहरियों को ब्यारु सरगम देतीं नन्ही रसवल्लरियाँ जो तनिक सुरन को एकरस में डूबने से रोकतीं और बदल देतीं पल पल उन्हें सारंग विभास कल्याण कैदारो से बिलावल राग में ...कबहुं गौड़ तो कबहुं बसंत खेले...कबहुं गौरि और नट....अहा !! (एकहूँ एकहूँ ताल मे गहराती सब राग-रागिनियाँ होड़ मचावै सेवाहेत सम्पूर्ण भाव-भाविनियाँ ) अनंत भजनमय स्माधिस्थ राग रागिनियों में गहराते निपटते किलकते द्वै रस सिन्धु एक रंग में... एकरस होते...परस्पर सुखसार गहराते....
"ऐसी नित्य बिहारिन श्रीबिहारीलाल संग अति आधीन आतुर लटपटात ज्यौं तरू तमाल कुंजमहल हरिदासी जोरी सुरति हिंडोरे झूली !"
जयजय श्रीराधे राधे...जयजय श्रीकृष्ण  !
जयजय श्रीयुगल सरकार श्रीश्यामाश्याम !!

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