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*चपलांगी श्रीप्यारी नवघनदामिनि जु* भाग 2

*चपलांगी श्रीप्यारी नवघनदामिनि जु*

भाग-2
*चपलांगी की नवरससारता*
चपलांगी क्यों कोमलांगी रसीली लजीली वे तो...यही सवाल और यह नवभाव कहीं कुछ बेमेल सा लगता ना...पर है नहीं सखी...
अति सहज है...श्रीप्रिया जु की चपलता अर्थात प्रेमरस से सराबोर बरसने को आकुल हिय...किस पर बरसता...आह...!अपने प्रियतम पर...और कहाँ री...
हाँ...!यही तो सारता असारता इस परम प्रेममय युगलजोरि की सखी री
सखी...जानै है तू...कहीं पूर्णविराम तो होवै ही ना है ना...प्रेम सदा गहराने को पनपता और पनपता ऐसे कि
"राधा मुख पंकज भंवर,कामी कुँवर किसोर।
गर्वी गर्वित नैन हरि,रमनी घन मन मोर।।"
कि अगर...कमलिनी पर मकरंद है तो भ्रमर पिपासु...पर इस मकरंद और पिपासा का मेल क्या सहज ही...नहीं...नहीं ना...निरख तो जरा...यह कमलिनी अति रसीली पर यह पूर्णतः खिलती किसके लिए...भ्रमर के लिए ना...रात्रि की यह रसीली कमलिनी खिलती तो प्रभात में भी है जब सूर्य की संयोजित रश्मियाँ इसे उसके आलिंगन स्पर्श का एहसास करातीं पर तब भ्रमर इस पर मंडराता रहता...सहेजता इसके मकरंद रस को ऐसे जैसे स्वयं को तन्मय होने रोक इस कमलिनी की रक्षा करता रहता और रात्रि में जब उसे पीने लगता तो कमलिनी इसे सहज ही अपने में भर लेती और स्वैविस्मृत यह भ्रमर पूर्ण रात्रि क्षुधित पान करता रहता ना और भोर की किरणें फिर एक नवागमन से इन रसभ्रमर और रसीली कमलिनी को उजागर करता नवमकरंद संचार हेतु...
अहा...जैसे सूर्य की आभा प्रभा इतनी प्रगाढ़ कि उसकी तपन और प्रकाश को उसकी रश्मियाँ ही संयोजित करतीं ना...और यह चंद्र अगर चाँदनी ना बिखरे तो शिथिल रह जाए...
ऐसे ही...ऐसे ही प्यारी सखी यह हमारी चपलांगी श्रीप्रिया जु नितनवदामिनी घनश्याम को अपनी अट्ठकेलियों भावतरंगों से सहेजती संभालती रहती...इन घन को शिथिल ना होने देतीं...कब कितना रस चाहिए...इसका स्वयं संयोजन करतीं अन्यथा यह श्यामघन तो...आह...!
सखी...जैसे सिंहनी का दूध सुपात्र में ही समाता और जैसे गुरू रूपी प्रियतम...बाहर जटिल व भीतर नरमहृद...ऐसे ही चपलांगी श्यामा जु रस की अधिकता में डूबे श्यामसुंदर को पल पल सुपात्रता स्वयं प्रदान करतीं...अन्यथा यह क्षुधित भ्रमर तो रोम रोम में समाकर एकरस ही रहे ना...
सखी मिलन में जैसे विरह हो तो ही मिलन गहराता और और और...अन्यथा नितमिलित में भी आनंद कहाँ समाता सो सखी...प्रियमनभामिनी प्यारी श्यामा जु अनंत अनंत श्रृंगार कर प्रियतम को रससार बनाए रखतीं और वह यह करतीं तो प्रियतम सुखहेत ही ना...तो यह चपलता भी आवश्यक अंग इस अद्भुत प्रीति में रससंचार हेत...
कोरा ज्ञान कहाँ टिकता ना हृदय में उस पर एक बूंद उज्ज्वल रस छलके तो पथ सरस सहज हो जाता क्यों कि अनुभूतियाँ इसमें समाने...इसे सजाने लगतीं...
अब देख तो यह घन...क्या इनमें यह कालिमा यूँ ही समाई...अरी इनकी सामर्थ्य नहीं कि यह सहसा आसमान में प्रगटे और बरस जाए...ना री...इसे जब स्पर्श मिलता ना...इसकी शिथिलता को हर लेती जब यह दामिनी...तभी बरसता यह और तब घनदामिनी के मिलन से ही प्रीतवर्षा बरसती और इनके प्रेम में रंगीभीगी यह धरा नवसंचार करती महकती थिरकती...आह...!
सखी...नीलसुंदर व स्वर्णिम प्रभा के मिलन से"हरे हरे"का रस चहुं दिश रस संचार करता हरितिमा बिखरा देता...यानि माधुर्य सौंदर्य के मिलन में हरितिमा ही समाई ना...वही हरा रंग जो नीलवर्ण श्यामसुंदर के पीतवर्ण श्यामा जु के मिलन से उन्हें हरा कर श्रीवृंदावन की विपिन सुरम्य रसीली छटा में समाया मिलता...वहाँ की लता पता हरियाली इनकी मिलित हरितिमा से...अहा...!
सखी...एक और गहन पहलू इस दामिनी की चपलता का जिससे घन सदा रसीला रहता...
निरख तो इन पियप्यारी की अतीव वर्णनातीत रूपमाधुरी को...सखी इसमें डूबकर कहाँ कोई भ्रमर फिर जग सकेगा...वह तो गहनतम अति गहन इस मधु में डूबेगा ही ना...सखी तब...तब यह चपलता ही इसे शिथिल होने से संभाल पाती...
रोम रोम में तन्मय हो जाने को उतारू श्यामसुंदर का रोम रोम पर तनिक सा भृकुटि विलास और इसकी कौंधन जब श्यामसुंदर के हिय पर दम दम सी दमकती ना सखी...तब यह नवदामिनी की नवरसीली रोमावली का पान करने हेतु फिर तत्पर हो उठता...
सखी...श्यामा जु श्यामसुंदर से किंचितमात्र भी भिन्नता में जी नहीं सकतीं सो जब वे एकरस होकर शिथिलता में जाने को होते ना तो यह नव नवरसीली होतीं और अपने मात्र भृकुटि विलास से श्यामसुंदर को संभाल लेतीं...उन्हें आलिंगन से नयनों में उतर कर व नयनों से अधरों तक...अनंत अनंत रसों का पान करातीं...अपनी इसी चपलता से...आह...!
पूर्ण विराम कहीं समाता ही कहाँ है री...इस रसीली वार्ता में...रस यह छोटी नन्ही रसीली...बूँदें... ... ...इन्हें विस्तार ना समझ लेना...जीना इन्हें ...इनके रस में रससार...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!

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