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जौवन मद नव नेहरू मद रूप मदन मद मोद , संगिनी जु

"जौवन मद नव नेहरू मद रूप मदन मद मोद
रस मद रति मद चाह मद उन्मद करत विनोद"

रूनझुन रूनझुन पायलिया व कंकनों की सरकती रसध्वनि और श्यामा जु का लजा कर पलकों को झुकाना जैसे पवन के मंद झोंकों से मिल रसबूँदें धरा में समाने लगतीं हैं श्यामा जु भी श्यामसुंदर जु के अंक लगी सिमटने लगतीं हैं।उनकी रसदेह पर रति चिन्ह उभरने लगते हैं और वे श्यामसुंदर जु के वक्ष् पर झुकीं सी स्वरस को छुपाने का प्रयास मात्र ही कर पातीं हैं ।

सखी के हृदय में रससमुंद उमड़ आया है और उसकी भीगी पलकों में श्रीयुगल जु की मिलिततनु छवि स्पष्ट झलकने लगती है।प्रेम सखी तृषित नयनों से श्यामा श्यामसुंदर जु को निहार रही है कि श्यामसुंदर जु श्यामा जु को प्रकृति रस की बात कह उनसे यूँ रसस्कित होने का कारण पूछते हैं।तभी श्यामा जु झुकी पलकों से ही श्यामसुंदर जु को इशारा करतीं हुईं कहतीं हैं कि यह रति चिन्ह आपके प्रेम में मेरे हृदय व अंगकांति को रसमय करते हैं जिसे मैं सहेजने का प्रयास करती हूँ पर सखियों के हमारे प्रति गहन प्रेम से यह रति चिन्ह उभर ही आते हैं।प्रेम सखी अपने प्राणप्रियतम को अत्यधिक सुख पहुँचाने हेतु सदैव युगल सेवा में मग्न श्यामा जु के प्रत्येक अंग का पोषण करती रहती हैं।

श्यामसुंदर जु मंद मुस्काते हुए श्यामा जु की रूपकांति को पलकों पर सजाते हुए उन्हें बताते हैं कि जैसे यह प्रकृति वस्त्राभूषण लता पता धरा अम्बर तुम्हारी देह श्रृंगार के दास हैं ऐसे ही यह युगल सखियाँ प्रेम पुजारिनें बनीं रस श्रृंगार करतीं हैं।इनकी प्राणप्रियतमा श्यामा जु की कायव्यूह रूप सखी संगिनियाँ अपने युगल को लाड़ लड़ाती व परस्पर लाड़ लड़ाते देखना ही अपनी रससेवा मानती हैं।

हास परिहास रसवार्ता करते श्रीयुगल प्रेम सखियों की नयनों का सुख बने हुए हैं और यहां सखी उनके प्रेम विलास को मधुरातिमधुर देख अति विभोर तन्मय बैठी है और श्रीयुगल परस्पर अति गाढ़ आलिंगन में बंध चुके हैं।

क्रमशः
जयजय श्रीयुगल  !
जयजय वृंदावन  !!

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