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स्वयं से कुछ भाव वार्ता , मृदुला जु

स्वयं से कुछ भाव वार्ता

स्वयं से वार्ता ....हां कभी कभी स्वयं से भी वार्ता आवश्यक होती है स्वयं को जानने के लिये संबधों को पहचानने के लिये ॥ प्रत्येक मनुष्य का जीवन कई स्तरों में बंटा होता है ॥ जिनसे उसके संबधों का स्वरूप और आत्मीयता निर्धारित होती है ॥ सबसे पहला या कहिये सबसे बाह्य स्तर होता है सार्वजनिक स्तर । यहाँ किसी व्यक्ति विशेष से हमारा कोई संबंध न होते हुये सबसे संबंध होता है । सबसे केवल और केवल सामान्य शिष्टाचार के लिये उपयुक्त व्यवहार ही अभीष्ट होता है ॥ इसका हमारी निजता से कोई लेना देना नहीं होता ॥ इसके उपरांत दूसरा स्तर है हमारा कार्य क्षेत्र ॥ ये भी सामाजिक ही होता है परंतु सार्वजनिक से कुछ मात्रा में यहाँ निजता आ जाती है क्योंकि जहाँ हम रोज काम करते हैं वहाँ के लोगों से कुछ न कुछ संबंध जुडना स्वभाविक ही है क्योंकि मनुष्य सामाजिक प्राणी ठहरा । कभी कभी ये संबंध आगे बढकर मित्रता में भी बदल जाते हैं ॥ इसके पश्चात् अगला स्तर आता है निजी संबधों का । इसमें कई विभेद होते हैं । यहाँ आते हैं माता पिता भाई बहन पति अथवा पत्नी संतान तथा अन्य सगे संबंधी ॥ निजता अर्थात् अंतरंगता के आधार पर सबके अलग अलग स्थान निश्चित हैं । विवाह से पूर्व माता पिता या सहोदर ही सबसे आत्मीय होते हैं परंतु विवाह पशचात् पति या पत्नी जितना अंतरंग कोई नहीं होता क्योंकि वह संबंध ही संपूर्ण समर्पण पर टिका होता है ॥ संतान मित्रता आदि भी कितने प्रिय हैं यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है ॥ कई विभेदों से घिरा यह स्तर बहुत विशाल होता है ॥ जन सामान्य का जीवन इन्ही तीन स्तरों तक सीमित होता है ॥ कभी कभी मनुष्य को इसके भीतर के स्तर अर्थात् स्व का भी अनुभव हो जाता है परंतु वह न तो स्थाई होता है और न अपने वास्तविक स्वरूप में बोधगम्य हो पाता है ॥ वहाँ हमारा स्वभाव हमारी पसंद नापसंद अवगुण दोष विचार संस्कार आदि का वास होता है ॥ सामान्य जन इसे अनुभव तो करता है पर समझ नहीं पाता ॥  ऊपर कहे गये स्तरों के बाद एक स्तर आता है स्व का  । इसका भी भिन्न भिन्न लोगों के लिये भिन्न स्वरूप होता है । जो मनुष्य कुछ आत्मचिंतन कर पाता है वह यहाँ अात्म कल्याण की भावना करता है । साधक जन इसी स्तर पर अवस्थित होते हैं । भजन , ध्यान साधन आदि यहीं अवस्थित होकर किये जाते हैं ॥ और इन सबके पश्चात सबसे गहनतम गुह्यतम्  स्तर है आत्मा का विशुद्ध स्वरूप स्तर । ज्ञानियों के लिये यह आत्म स्थिती होती है । जबकी प्रेमियों के लिये सबसे गुह्यतम्  स्तर हृदय होता है क्योंकि वहाँ ही उनके प्रेमास्पद  का नित्य वास होता है ॥ वही प्रेमास्पद  प्रेम रूप होकर उससे एक स्तर नीचे भी वास करते हैं ॥ जिस स्तर से साधक जन साधन भजन आदि करते हैं उसी स्तर पर प्रेम प्राप्ति होने पर प्रेमी प्रेममय होकर रहता है ॥ अपने आराध्य के प्रति प्रेम यहीं निवास करता है ॥ इन समस्त स्तरों और उन पर अवस्थित संबधों की अपनी अपनी भूमि होती है । समस्या तब आती है जब हम इन्हें आपस में मिलाने लगते हैं या यूं कहिये कि इनका परस्पर अतिक्रमण होने लगता है ॥ जैसै हमारे निजी संबंध सार्वजनिक या सामाजिक रूप में नहीं उतर सकते । यदि हम सार्वजनिक स्तर पर हैं तो वहाँ किसी को निजी दृष्टि से देखना अपराध कहलायेगा । तीसरे स्तर अर्थात् मन के गुण दोष विकार आदि बाहर के स्तर पर आरोपित करने लगें तो पागल या मनोरोगी कहलायेंगे । यदि सार्वजनिक स्तर की दूरी को निजी संबधों में ले आयेंगे तो पारिवारिक संबंध नष्ट हो जायेंगे ॥ कुछ संबंध रक्त के होते हैं ,कुछ देह के ,कुछ मन के ,कुछ हृदय के और कुछ आत्मा के ॥ सामान्य मनुष्य मन तक के संबधों को ही अनुभव कर पाता है क्योंकि भीतर के स्तर अभी  विकसित नहीं हुये ॥ केवल भगवद् पथ पथिक ही दो अन्य स्तरोंको अनुभव कर पाते हैं ।  सबसे गुह्यतम्  स्तर पर तो परम प्रेमास्पद श्री भगवान का अखंड राज्य होता है ॥इसके बाहर के स्तर पर उनके निज जनों के प्रति प्रेम अनुभव होता है क्योंकि जैसा पहले कहा कि यहाँ श्री भगवान ही प्रेम रूप हो वास करते हैं तो स्वजनों के प्रति उनका प्रेम स्वभाविक है । और जो उन स्तरों पर अनुभव होते हैं वह भी साधारण संसारी जन नहीं अपितु भगवद् जन ही होते हैं ॥ यदि कोई व्यक्ति किसी प्रेमी हृदय के स्तर को स्पर्श कर देता है तो जान लीजिये कि वह संसारी नहीं है क्योंकि वहाँ प्रवेश संसार को मिलता ही नहीं है । यद्यपि इसे ठीक समझ पाने में कुछ समय लग सकता है परंतु यह है सत्य ही । भगवद् जन ही भगवान के प्रेम राज्य में प्रवेश पा सकता है । और भगवद् जन है कौन जो भी उन्हें प्रेम करे सच्चा प्रेम उनका प्रेम उनसा प्रेम ॥ तो कीजिये आत्ममंथन कि आपके जीवन में कौन कहाँ अवस्थित है और आप स्वयं अपने कितने स्तरों को छू पाये हैं अब तक ॥
समस्या वहाँ भी आती है जब हम अपने भीतरी स्तर की आत्म स्वरूप को बाह्य जगत् से स्वीकृति चाहते हैं । बाह्य जगत कभी हमारे भीतरी स्वरूप को स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि यह स्वरूप उसके बनाये नियमों के सांचे के अनुरूप नहीं  होता और दूसरा कि जगत उस स्थिती पर नहीं है कि जो आपके स्वरूप को ठीक ठीक समझ सके ॥ तो जगत हमें जिस रूप में जानता समझता है उसे वही समझने देना चाहिये और अपने भाव स्वरूप को अपने आराध्य के लिये ही संवारना चाहिये कि वे तो नित्य देख रहे हैं आपका भाव रूप ॥।
यद्यपि इसमे पीड़ा अवश्य होती है कि जब आपके भाव स्वरूप को नकार दिया जाता है । गहन पीड़ा होती है तो उस क्षण नकारने वाले की अबोधता जानना चाहिये और आराध्य की इच्छा ॥

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