"अंसनि पर भुज दिये विलोकत इंदु वदन विवि ओर
करत पान रस मत्त परस्पर लोचन तृषित चकोर"
हृदयाकिंत व अंग प्रत्यंगों का श्रृंगार करते रति चिन्ह सखी को व्याकुल करते हैं और वह फिर से रस से सराबोर पुलिन की पवन सम नीचे की ओर चलने लगती है।उसे भान ही नहीं अपनी स्थिति व व्याकुलतावश वस्त्राभूषणों का।बस आगे बढ़ रही है जैसे वह खुद नहीं कुछ चुम्बकिय प्रेमासक्त रस ही उसे सुगंध सम खींच रहा है।
पग पग डगमग डगमग वह पुलिन से उतरी तो तनिक थम कर फिर से धरा पर युगल चरणों की थाप सुन ढुरक जाती है।यहाँ श्रीयुगल रूके होंगे उनके पदकमल जैसे एक के ऊपर एक धरे पड़े होंगे और धरा ने रजपरागों को खिला कर पुष्पाविंत पथ ही तैयार कर दिया जिस पर श्यामा श्यामसुंदर जु तनिक रूक प्रेम में डूबे होंगे।उनकी मदभरी छेड़न छुअन से कुछ भागमभाग और पकड़ा पकड़ी हुई होगी।कहीं श्यामा जु आगे दौड़ी होंगी और कहीं श्यामसुंदर जु ने उन्हें धर पकड़ कर हृदय से लगा लिया होगा।
सखी के नेत्रों से निर्झरन अश्रु बहने लगे और कपोल ग्रीवा से होते हुए उसकी कंचुकी को भिगाते रतिचिन्हों पर मोती बन ठहरते और लुढ़कते उसे छुअन छेड़न का एहसास दिला रहे हैं।श्रीयुगल जु के मिलन की उन रसपगी घड़ियों को हिय में संजोती सखी वहीं बैठ राह पर पदचिन्हों को आलिंगित करती हृदय से लगाती भावविभोर हो रही है।
क्रमशः
जयजय श्रीयुगल !
जयजय वृंदावन !!
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