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सागर के मध्य चंद्रमा नहीं नहीं नील चंद्रमा आहा ... मृदुला सखी

सागर के मध्य चंद्रमा नहीं नहीं नील चंद्रमा आहा ....।

कभी देखा है कि आकाश कुसुम आकाश तज सुंदर लहरों से उफनते रत्नाकर के मध्य अवस्थित हो परम सुशोभित हो रहा हो ॥ नहीं देखा तो श्री गांधर्विका के परम अहैतुक अनुग्रह को अनुभव कर नयन मूंद दर्शन कीजिये भावराज्य में प्रेम राज्य में एक ऐसे दिव्य अनन्त तरंगों से शोभायुक्त सुंदर सिंधु का जिसके मध्य पूर्णचंद्र श्रीकृष्णचंद्र खेल रहे हैं । उस दिव्य सागर की अनन्त लहरियों पर नृत्य करता वह नीलकांतियुक्त सुधाकर संपूर्ण लावण्य के सार को समेटे उन सागर तरंगों को उन्मादित कर रहा है कि वे लहरें बारम्बार अपनी संपूर्ण रस राशि से उस परम कमनीय अति ललाम शशि का रसार्चन करती रहें । नित नूतन रस सम्पदा नित नवीन रस माधुरी लुटाती उस सुधा के प्यासे सुधाकर पर ॥ फिर कैसे नित्य नवल आनन्द रश्मियों से भर उठती स्वयं वे रस बालायें । जितना रस निमज्जन कराती उस चारु चंद्र को उतना ही वर्धित हो उठता स्वयं उनका रस कोश । नित्य नवीन तृषा नित्य नवीन रस वर्षण । नित उफनती हुयी नवल रश्मियों को समेटे हुये वह मधुरातिमधुर रत्नाकर अपने रस रत्नों से श्रृंगार करता अपने हृदय नलिन का ॥उस रस रत्नाकर के अतल तल में डूबने को अधीर वह  कलानिधि भी तो नित पुकारा  करता उसी एक अपने पीयूष वारिधि को ॥

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