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पिय सुख बावरी , संगिनी जु

श्री राधा

पिय सुख बावरी

आज नन्दनंदन वो रसधाम एक तरु की ओट से छिपकर निज प्रिया के दर्शन कर रहे हैं ॥ तो छिपकर दर्शन पिय सुख बावरी भी कर रही है प्यारे के ॥ पिय के तृषित युगल नयन निज प्यारी के मुख मंडल पर टिके हुये हैं और बावरी के नयन पिय के मुख मंडल पर ॥ प्रिया रूप रस का पान करने में निमग्न पिय के लोलुप दृग् कभी खिलते हैं कभी  हंसते हैं कभी रस को समाने हित कर्णो को छूने लगते हैं ॥ ऐसा लग रहा है जैसे रस को समा ही नहीं पा रहे ॥ धीरे धीरे रस नेत्रों से बिखर कर कपोलों का अतिक्रमण करते हुये मधुर अधरों तक छिटकने लगा है ॥ रस का अतिरेक हो रहा है पिय का रोम रोम रस से पूरित हो चला है ॥ इधर इस बावरी की दशा तो देखिये पिय को सुख पान करते देख ये तो स्वयं रस में डूबने लग पडी है । पिय के नयनों से छलका रस इसके नेत्रों में उतर आया है ॥ ये बावरे नयन भी रस बरसा रहे हैं ॥ पिय का सुख ही तो रस इसका । ज्यों ज्यों वे प्राणों के सागर सुख सागर को पीते जा रहे हैं त्यों त्यों इस बावरी का रोम रोम रस सागर करते जा रहे हैं ॥ प्यारे का सुख इसकी रूप माधुरी को अनन्त गुना वर्धित करता जा रहा है । पिय सुख ही तो प्राण पोषण इसका । पिय का सुख अब रसरूप हो रोम रोम से छलकने को आतुर हो रहा है । उधर वे   प्राणधन रसराज हुये जा रहे हैं इधर ये बावरी रस सरिता हो रही है ॥ बसन भींगने लगे । लो अंगराग भी बह चला ॥ आहा प्राण भी द्रविभूत हो बहने को तत्पर ॥ लगता है जैसे संपूर्ण अस्तित्व ही विलीन हो जायेगा इस रसबाढ में ॥ लो रस धारा बन बह चली वह अपने रस सिंधु में समाने .....॥

श्री  राधा

पिय सुख बावरी

हे मेरे जीवन के जीवन तुम देख रहे छिपकर निज प्यारी को । मैं देख रही छिपकर एक झरोखे से तुमको । टिके हुये हैं मेरे नेत्र तुम्हारे रस तृषित नयनों पर ॥ पल पल छिन छिन खिलते हसंते वो रस लोलुप से दृगन । भरे जा रहे रस पीकर फिर छलकाते बिखराते छटा प्रेम की । रस पीकर रस बरसाते वो युगल नयन । पीते पीते लो अतिरेक हुआ रस का भर गया अंग अंग में   तुम्हारे । छलक रहा झर रहा रोम रोम से वही रस अब । तुम्हारे सुख की रसधारा भिगो रही है मुझको भी । भीगे बसन बह चला अंगराग भी ॥ डूबी जा रही मैं तव सुख में । डूबा मेरा सकल अस्तित्व ॥ बह चली हूँ रस धार बन मिलने अब निज सिंधु से ॥

नित नव नव प्रेम तरंगें हिय में बिखरावें छिटकावें वे प्राणपति ।छिन छिन पल पल नवल रूप धर अकुलावें हिय को मेरे मनहर देखुं कितने रूप तुम्हारे थकित चकित सी हिरनी मैं नव नव रंगी नवल केलि यह बहती नयनों से अश्रु सी । प्रातः से निशा पर्यन्त न जाने कितने  प्रेम रंग उकेरते हिय पटल पर । न जाने कितनी धारायें बहाते नयन नीर सों । कितना प्रेम तुम्हें है प्रियतम अपने प्यारे निज जन से देख चकित सी खडी बावरी सोचूं बस हर पल ये ॥ हजार रंग हैं इधर भी हजार रंग हैं उधर भी भीग रही मैं बीच खडी बस दो प्रेमिन की होली में ॥ भूल जाती जब प्रेम तुम्हारा अपना इसे मैं लेती मान तभी दुखी हो बिलख उठती छटपटा उठते ये प्रान ॥

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