श्री राधिका भाव कणिका ....
हे मेरे जीवन के जीवन क्या कहुँ आपसे कि न जाने क्या क्या बन जाना चाहती है आपकी यह पगली
हे प्रियतम हे प्राण वल्लभ मम् हे मेरे जीवन हिय सार । काश कभी कह पाऊं तुमसे अपने सभी हृदय उद्गार । बन जाऊँ न जाने क्या क्या , बिछी रहुं तव पद पथ पर महकुँ सरसु अणु अणु होकर ॥ बन जाऊँ निर्मल आकाश बन जाऊँ सूर्य रश्मियाँ बन जाऊँ मधुर सुधाकर बन जाऊँ खिली कौमुदी ॥ बन जाऊँ मंद पवन कि छूती रहूं करुं सुखदान । बन जाऊँ में वारिज रसयुक्त वृष्टि कर कर दूँ रससिक्त ॥ बन जाऊँ मैं पुष्प मनोहर भरे हृदय में नव अनुराग । भाव सुगंध लेकर नित प्राण वायु में करूं प्रवेश । मधुर लावण्य लिये पाटल बन बिछ जाऊँ तव पद प्रान्त ॥ बन कर लता विटप से लिपटूं उर में मादकता सरसाऊँ ॥ बनुँ कपोत शुक सारी गाती रहुँ विमल यशगान । बन केयूर रिझाऊँ तुमको थिरकुँ नित तव नयन समीप ॥ बन जाऊँ फिर मीन मनोहर जब आओ करने स्नान । मैं ही जल हो जाऊँ प्रियतम कि सब ओर तुम्हारे मैं लहराऊँ ॥ वसन बनुँ लिपटूँ तुमसे मैं हो जाऊँ सुशीतल अंगराग ॥ केशर चंदन बन अंग लगुँ तव ॥ बन जाऊँ मैं तव उर हार ॥ सुंदर आभूषण बन जाऊँ पर रहुँ कोमल अपार ॥ सब दृश्य बनुँ तुम्हारे मनहर बन जाऊँ रसमय झनकार ॥ बनुँ सभी वो शब्द मनोहर जो सुनते तुम देकर ध्यान ॥ बन जाऊँ रस रसना की मधुर मधुर जो करते पान ॥ बन कर अनन्त रसवंती रस सरिताएँ करुँ तुम्हें मैं प्रेम अपार ॥ अनन्त रूप धरुँ मैं प्रियतम तव सेवा तव सुख हित ॥ शब्द स्पर्श गंध रूप रस सभी रूप सुखदान करुँ नित ॥ जड़ चेतन सब कुछ बन जाऊँ प्रतिपल नव रसपान कराऊँ ॥
यद्यपि किसी भी हृदय में उदित होने वाली आह्लादिनी की कृपा कणिका को वाणी में व्यक्त कर पाना सर्वथा असंभव ही है परंतु फिर भी उन्हीं महिमामयी की अहेतुक कृपा और इच्छा से किसी अणुमात्र कणिका रूप में उनके हृदय उदगार किंचित् मात्र व्यक्त हो पा रहे हैं । यहाँ कृष्ण किंकरी भाव कणिका भी लिखा जा सकता था क्योंकि वे तो स्वयं को प्रियतम किंकरी ही मानतीं हैं । परंतु तब इसे किसी अन्य का भावोद्गार समझा जाता और ऐसा समझते ही अर्थ बदल जाता । क्योंकि अन्यत्र प्रेम में कुछ न कुछ लेशमात्र ही सही स्वार्थ का परमाणु रहता ही है और उस अवस्था में प्रियतम का नित्य संग अखंड सानिध्य निज सुखार्थ चाहने का भ्रम करा देता । अतः यहाँ किशोरी के परम निर्मलतम प्रेम का दर्शन हो इसिलिए श्री राधिका भाव कणिका लिखा गया ॥
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