"जद्दपि प्यारे पीय कौं रहते है प्रेम अवेस
कुँवरि प्रेम गंभीर तहाँ नाहिंन वचन प्रवेस"
प्रियतम श्यामसुंदर श्यामा जु को अंक भर लेने को अति अधीर हुए जाते हैं तभी घन दामिनी जैसे सोची समझी सी चाल चलते सहसा घड़घड़ की तीव्र ध्वनि करते हैं और श्यामा जु झट से श्यामसुंदर जु के कंठ लगतीं हैं।श्यामसुंदर श्यामा जु को धर दबोच लेते हैं अपनी भुजाओं में और नाव से उठकर उन्हें एक तमाल वृक्ष की आढ़ में ले छुपते हैं।गलबहियाँ डाले श्यामा श्यामसुंदर जु परस्पर लिपटे खड़े हैं कि श्यामा जु रसमयी वार्तालाप करने लगतीं हैं।श्यामा जु के मुख से मधुर वाणी सुन श्यामसुंदर जु उन्हें हृदय से सटा लेते हैं और श्यामा जु को निहारने में मग्न हो जाते हैं।
प्रिया जु श्यामसुंदर जु से प्रकृति की अति कोमलता और कहीं कहीं अति सुघड़ता का कारण पूछतीं हैं।श्यामसुंदर जु मंद मुस्करा देते हैं और प्रकृति को निहारती श्यामा जु का मुखकमल ताकते हुए इतना ही कहते हैं ताकि प्रिया जु श्यामसुंदर जु से यूँ ही लिपटी रहें।श्यामसुंदर जु की बात सुन श्यामा जु के अधरों पर स्मित दामिनी सी मंद कौंध जाती है और वो प्यारे श्यामसुंदर जु को अपलक निहार कर फिर नयन मूंद लेतीं हैं।
श्यामसुंदर जु तब श्यामा जु को प्रकृति की उनके प्रेम प्रति अनुकूलता का रहस्य बताते हैं कि यह प्रकृति तो श्यामा जु की दासी हैं।जो हृदयास्थ भाव श्यामा जु वाणी से नहीं कह पातीं वह ये प्रकृति कभी सुकोमलता से और कहीं कहीं सुघड़ता से प्रियतम को सुझा देती है और जिस रस की सकामता लिए श्यामा जु श्यामसुंदर जु को जैसा चाहतीं हैं यह मूक श्यामा जु की तरफ से उन्हें बता देती है।श्यामा जु अति लज्जावान जो हैं और प्रकृति उनकी वाणी स्वरूप रसराज्य में अनुकूल व्यवहार करती उनके रसवर्धन हेतु सदा से।प्रिया जु श्यामसुंदर जु के मुख से यह रहस्य सुन और रसभीगी से उनके विशाल वक्ष् में सिमट सी जाती हैं।
सखी वहीं बैठी श्यामा श्यामसुंदर जु की रसवार्ता सुन मंत्रमुग्ध उन्हें ओट लिए खड़े देख अति प्रसन्नतावश व रसस्कित बलिहारी जाती है।श्यामा जु श्यामसुंदर जु से एक ही झीनी सफेद चादर में लिपटी खड़ी हैं।उनका हारश्रृंगार वस्त्राभूषण तो पहले से ही अस्त व्यस्त हैं और अब उन्हें प्रेम में और भी कोई सुधि ना है।सखी श्रीयुगल को निहारती नयनों के सींचती रसमई वाणी से 'श्रीयुगल श्रीयुगल' उच्चार रही है।
क्रमशः
जयजय श्रीयुगल !
जयजय वृंदावन !!
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