Skip to main content

साधना और प्रेम प्राप्ति 2 , मृदुला जु 2

साधना और प्रेम प्राप्ति  2

साधक की लीला भावना प्रकट क्यों नहीं होती (तत्सुखिया )। तत्सुख  भाव ही वास्तव में प्रेम का वास्तविक अर्थ और स्वरूप है । या यूं भी कह सकते कि तत्सुख भाव ही प्रेम है ॥ तो यह प्रेम अर्थात् तत्सुख भाव प्रकट कब होता है । यह प्रकट होता है प्रेमास्पद से अभिन्नता प्राप्त होने पर क्योंकि वास्तव में आत्मा स्वयं से ही प्रेम कर सकता अन्य से नहीं । या यूं कहिये कि स्वयं से ही प्रेम संभव पर से नहीं । तो स्वयं हम हैं क्या आत्मा ही तो हैं । प्रणय राग अनुराग आदि से होता हुआ प्रेम जब अपनी पूर्णता पर पहुंचता है तब प्रेमास्पद से अभिन्नत्व  लाभ कराता है । उस समय प्रेमी स्वयं को प्रेमास्पद में खोकर केवल उसी प्यारे को अनुभव करता है । स्वयं को उसी प्रेमास्पद में पाता है और उसी के सुख के लिये उसके प्राणों में तृषा उदित हो जाती है जो प्रतिपल वर्धमान रहती है । यह समस्त अनुभूति प्रेम प्राप्ती होने पर ही अनुभूत होती हैं और तब ही रहस्य खुलता है निकुंज लीलाओं का । युगल दर्शन आलिंगन मिलन आदि के द्वारा किस प्रकार परस्पर को सुख देकर सुखी होते हैं । किस प्रकार युगल के लीला विहार में सखियों , मंजरियों , सहचरियों का सुख निहीत है ॥ जब तक ये लीला रहस्य श्री प्रिया कृपा से उजागर नहीं होते तब तक साधक का सच्चा लीला भाव बन ही नहीं सकता । अतः इन लीला भावों के वास्तविक अनुभूतियों के लिये प्रेम का संपूर्ण  विकास होना परमावश्यक है ॥ वर्तमान में साधक बिना प्रथम सोपान पर पग धरे सीधे ही निकुंज लीलाओं में प्रवेश पाने को उत्सुक रहते हैं और निज निज भावनाओं से लीलाओं की कल्पना कर लेते हैं जबकी बिना मंजरी या किंकरी भाव प्राप्ति के युगल की केली लीला दर्शन असंभव है ॥क्योंकि इन भावों की प्राप्ति पश्चात ही हृदय में श्री राधिका का वास्तविक स्वरूप प्रकाशित होता है । और तब युगल की केली काम भोग नहीं वरन वरन अपने यथार्थ स्वरूप में अनुभूत होती है ॥
कुछ और भी स्पष्ट करना चाहुंगी । निकुंज सेवा भाव प्राप्ति के लिये रसिकों ने जो रीती बताई है उसका अनुसरण करना चाहिये । निकुंज उपासक कोई प्रत्यक्ष गुरु न मिलें तो किन्हीं मंजरी जी को गुरुपद पर आसीन कर उनके आनुगत्य में सेवा भावना करनी चाहिये । यदि यह भी संभव न हो सके तो मन में श्री ललिता जू से प्रार्थना कर स्वयं कोई छोटी से छोटी सेवा की भावना करनी चाहिये ॥ जैसै निकुंज में सोहनी सेवा करना या पथ सिंचन कर देना । या स्नान के लिये जल ले आना अथवा माला आदि के लिये उपवन से पुष्प चयन कर लाना ॥ ऐसी कोई भी भाव सेवा  नित्य करते रहने से श्री ललिता जू की कृपा अवश्य प्राप्त होगी और तदनंतर सेवा में विकास भी होगा ॥ परंतु समस्या यह है कि आजकल ये सब कोई नहीं करना चाहता । सब सीधे ही युगल के निज केलि कक्ष में प्रविष्ट होना चाहते हैं। जबकी वहाँ तक पहुँचने के लिये कितने भावों का क्रमशः विकास होना आवश्यक है । साधक युगल को भी मात्र नायक नायिका ही जानते हैं और उनके लीला विलास में प्रवेश को अपना सिद्ध सहज अधिकार  ॥। श्री हरिदास

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...