"वृंदावन प्यारो अधिक,यातें प्रेम अपार
जामें खेलती लाडली,सर्वसु प्राण आधार"
श्रीयुगल चरणारविंदों की बलिहारी सखी अभी यहीं पुलिन के नीचे युगल प्रेम में तन्मय बैठी है कि एक चंचल पवन का महकता झौंका उसे छू कर हृदय की वीणा को तरंगायित कर महका जाता है।रोम रोम जैसे उसका अंतर्मुखी हुआ उस महक से भावभीना हो उठता है और उसके कर्णपुटों में स्वरित मधुरातिमधुर संगीत की झंकार बज उठती है।झंकार सुन सखी को समझते देर नहीं लगती कि श्यामा श्यामसुंदर जु यहीं आसपास ही कहीं रसमग्न मधुर प्रेमालाप छेड़े हुए विराजित हैं।
संगीत की अति गहन व स्वरचित्त ध्वनियाँ सम्पूर्ण निकुंजों को जैसे पुष्पाविंत हार पहनाती रस से सराबोर सजा रही हैं।श्रीयुगल संग संग एक ही राग छेड़े हुए हैं जैसे वे स्वयं एक होते हुए भी दो रूप धर लेते हैं ऐसे तान से तान मिलाती वीणा व बांसुरी की माधुर्य भरी रसध्वनि सखी को चलायमान करती है।अपने प्यारे प्रियालाल जु को संग संग विहरते जान सखी एक भावलहरी सी उमड़ पड़ती है और युगल धुन को सुनती जैसे उसकी तरंगों पर सवार हो झंकार बन चल देती है।
तमाल तले आ उसके कदम स्वतः ठहर जाते हैं और यहाँ से वो रससंगीत मुग्ध ध्वनि आना बंद हो जाती है।अटवी पर श्यामा जु की वीणा और श्यामसुंदर जु की वेणु धरी है।सखी को समझते देर नहीं लगती कि यहीं से होकर प्रियालाल जु निकुंज भवन में प्रवेश कर गए हैं।
युगल रस संगीत से मदमस्त सखी के कदम रूकने का नाम नहीं ले रहे पर उन रसध्वनियों का नाद उसके हृदय में समा गया हो जैसे और वह थिरकती हुई सी वीणा और वेणु को व्याकुलतावश उठा लेती है।
सखी इन दोनों यंत्रों को उठा हृदय से लगाती है और अपने प्रियालाल जु की छुअन से थिरकते वीणा के तारों व अधरसुधापान किए हुए वेणु के छिद्रों को छूती है कि उसके हृदय से होते हुए रस रति चिन्ह गहन से गहनतम हो उठते हैं।सखी वहीं उन युगल प्रेम संगीत वाद्यों से प्रेम रसवार्ता करती खोई सी बैठ जाती है और कभी तमाल तले जहाँ श्यामा श्यामसुंदर जु विराजित थे उस स्थान पर मस्तक रख नीचे पादचिन्हों को करों से छूकर मस्तक पर सजाती है।
कमश:
जयजय श्रीयुगल !
जयजय वृंदावन !!
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