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साधना और प्रेम प्राप्ति , मृदुला जु

श्री राधा

साधना और प्रेम प्राप्ति

वास्तव में साधना और प्रेम दो भिन्न स्थितियाँ हैं । साधना मार्ग है और प्रेम महान लक्ष्य । साधना तैयारी है उस प्रेम को सहेजने की जो प्रेम रूप श्री भगवान की परम अहेतुकी कृपा से जीव को सुलभ होता है । जीव हृदय अनन्त जन्मों के संस्कारों के मल से आच्छादित है कि यदि श्री भगवान प्रेम दान करना भी चाहें तो भी वह प्रेम हृदय को स्पर्श कर ही नहीं पाता । इन्हीं माया जन्य संस्कारों के मल को दूर करने के लिये सन्त और भगवद् जन साधना का मार्ग बतलाते हैं । साधना न हमें प्रेमी बनाती है न ही श्री भगवान के निज सुख से इसका कोई संबंध है वरन साधना हमारे अपने मलिन चित्त की शुद्धि के लिये परमावश्यक है । साधना से प्रेम प्राप्ति होगी यह उचित नहीं लगता क्योंकि प्रेम तत्व केवल श्री भगवान् स्वयं या उनकी इच्छा से ही उनके कोई निज जन परम अनुग्रह कर प्रदान करते हैं ॥ प्रेम कृपा साध्य है साधनसाध्य नहीं ॥ और जीव जब तक प्रेम प्राप्ति से दूर है तब तक अहंता का संपूर्णता उन्मूलन असंभव है ,चाहे वह साधना की ही अहंता ही क्यों न हो ॥ किसी न किसी अणु रूप में प्रकट या अप्रकट रूप में वह अहंता जीव चित्त में रहती ही है । उसका संपूर्ण उन्मूलन केवल प्रेम प्राप्ति पर ही संभव है क्योंकि प्रेम का मूल ही अहंता शून्यता में निहित है । प्रेम का दिव्य गुण है कि प्रकट होते ही संपूर्ण ममत्व अपने   अपने विषयों से हटकर स्वतः ही  प्रेमास्पद श्री भगवान के चरणों में विश्राम पाता है जो उसके वास्तविक एवं मूल केन्द्र हैं । उस ममत्व को बलात् कहीं से हटाकर वहाँ जोडना नहीं पडता वरन हृदय प्राण स्वतः अकुला उठते हैं समर्पण के लिये । जब संपूर्ण ममता का विषय श्री चरण हो जाते हैं तो मैं मेरे प्रयास मेरी साधना मेरा सुख जैसी भावनायें निर्बीज हो जाती हैं । ऐसी भावनाओं के स्थान पर प्रियतम ही समस्त साधना मेरी प्रियतम ही साधनाओं का परम सुफल जैसे भाव हृदय में उदित होने लगते हैं । साधना से तात्पर्य अपने हृदय रूपी पात्र को मांजने से है । जिस प्रकार मल से भरे पात्र को कितना भी मांज लिया जाये पर उसमें दुर्गन्ध का कोई न कोई अणु रह ही जाता है उसी प्रकार माया मल से मलिन चित्त को साधना से एक निश्चित सीमा तक ही शुद्ध किया जा सकता है । उसकी दुर्गंध के अणुओं का संपूर्ण   उन्मूलन तभी संभव है जब भगवद् कृपा से उस पात्र में दिव्य प्रेम सुधा भर जावे ॥ और यदि बात की जावे कि साधक की लीला भावना अप्रकट क्यों रहती है तो इसका समाधान संभवतः यह है कि मार्ग पूर्ण होने पर ही लक्ष्य प्राप्त होता है । क्योंकि यदि साधना मध्य में लीला भाव प्रकट होने लगे तो तब तक साधक उन लीलाओं के वास्तविक स्वरूप को न जानकर उनके बाह्य रूप से भ्रमित हो सकता है । अतः पूर्ण पात्रता मिलने पर ही लीला भावना प्रकाशित  होती है चित्त में ॥

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