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गुरूचरण अनुरागिनी'संगिनी'. संगिनी सखी जु

गुरूचरण अनुरागिनी'संगिनी'

"बैठि बिचारत दासि हरि की
कौन सुख बसै इन नैनन में
रसभीजैं जित तल्लीन बैठे श्रीहरिदास
कौन तन्मय झाँकी अद्भुत समाई सैनन में
राग अनुराग सिरमौर अति बाढ़ै सुरंग बैनन में"

बैठी कब से निहार रही है।प्रणाम कर जैसे ही पलक उठी जा टिकी श्रीहरिदासि जु के चरणकमलों से उनके रसभरे अति अरूणारे मुखकमल पर जहाँ कई कई लाख गुणा सुंदर सुघर विभूतियाँ जैसे न्यौछावर पड़ी हैं और ढुरक रही हैं श्रीचरणों में केवल एक झाँकी पाने को आतुर उन युगलनखों की जहाँ तल्लीन बैठे हैं श्रीस्वामी जु पर ऐसा सौभाग्य कहाँ कि जहाँ रसिक शिरोमनि स्वयं ही लुटे पड़े हों वहाँ कोई उनसे याचना भी कर सके झाँकने की।अश्रुप्रवाह नयनकोरों से होते हुए तुच्छ विभूतियों को तो रजरानी के चरणों में ही अर्पित कर खुद उड़ चला उन फिज़ाओं में जो तन्मय देहास्क्ति से परे एक नए आशियाने में नया सखी स्वरूप लिए रस से सराबोर सेवारत विराजित है।जहाँ स्वास परस्वास बस एक ही रटन सुनाई आती है "राधे राधे राधे""हा राधे"

अति मधुर राग रागिनियाँ और कोमलातिकोमल पुष्पवल्लरियाँ मयूर पिक कोकिल की अति सुमधुर रसपैंड चरणों की रूनक झुनक करती रसभींजी मदमस्त चाल की कोमल कोमल संगीतमयी पैलियाँ।अहा !प्रकृति में जैसे किसी के प्रेम रस के रंग खूब खूब खिले हों।एक एक रसपैंड पर खिलता एक एक पुष्प और एक एक रसधमनी पर थिरकता एक एक सुर सात सरगम का।यहाँ तो ऐसी झन्कार है जैसे स्वयं सात सुर ही लयबद्ध रस पिपासु बने नाच रहे हैं कठपुतलियाँ बने इन नरम कमलपंखुड़ी सी अति कोमल रसअंगुलियों के नखों की पकड़ में थिरकते वीणा के तारों पर।अद्भुत रससंचार रसवाहिनी वीणा की तारों में सर्वत्र बिखर कर झूम गा रहा उनके सुघड़ प्रेम के तरानों को।क्या ऐसा भी कुछ होगा कहीं जो जान सके आखिर कौन है जिनके लिए यह रसावलियाँ यूँ नाद बन समा रही हैं हरेक कण कण में और थिरका रही हैं कण कण से नवनवायमान अनगिनत पराग कणों को जिनसे गिरता मकरंद प्रतिक्षण किन्हीं व्याकुल तरंगों के स्वांस स्वांस रसीले होने का अंदेशा दे रहा हो।

लयबद्ध पुष्प लता वल्लरियाँ संगीतबद्ध कीर कपोल मयूर कोकिल नाचती झूमती प्रकृतिस्थ पवन लहरियाँ रसभीनी नवरंग से उभरती चारूलता कोपलें नाचते झूमते जीवंत नज़ारे को निरखते अति रसमई तल्लीन दो नयन जिनमें डूबना ही एक लक्ष्य जो शायद ले चले उन अति गहन रसीले भाव बहावों में जहाँ कोई बहका महका सा रसभरा तराना छिड़ा होगा जहाँ केवल और केवल प्रेम की अति मधुर मधुर तरंगें ही ब्यार में रस घोलती स्वास बन चिन्मय देह का श्रृंगार करती क्रीड़ाविंत तान छेड़े रसमगी उन्हें निहारती होगी।

विनती प्रियवर गुरूवर संग ना सही पर नख पर विराजित रज कण पर एक अति क्षीणतम क्षीण अणु परमाणु को ही ले चलो उन समक्ष जिनके रस से सराबोर आपका यह मुखकमल प्रतिपल नवीन नवीन चंद्रमा को भी लज्जित कर रहा है।ले चलो वहाँ जहाँ रस ही रस अनवरत रस ही बहता और रस ही रस को चाहता हो।जहाँ रस ही रस की प्यास लिए गहराईयों से ऊँचाइयों की ओर अग्रसर होता रस ही रस को निहारता डूबता उतरता हो।

क्रमशः

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