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रस राज्य की रस सत्ता ... मृदुला सखी जु

रस राज्य की रस सत्ता ...

पत्ता पत्ता निकुंज का रस से भरा प्रेम से आह्लादित । अणु अणु रस का सागर सा समेटे हुये ।वन उपवन पुष्प पल्लव वल्लरीयाँ रस की वृष्टि करती हुयी । कैसा चिन्मय होगा न वह रस राज्य जहाँ नभ के मेघों से भी रस वर्षा होकर युगल केलि रस वर्धित करता होगा । जहाँ बहती समीर भी पत्र पल्लवों को छेड़ हृदय संगीत का सृजन करती होगी । जहाँ के सरोवर में खिलने वाला प्रत्येक कुमुद हृदयराग रंजित पराग लिये युगल की केली सेज सजाने को अकुलाता होगा । जहाँ उपवनों में नित्य नवीन रसीले कुसुम युगल के रस पथ पर उनके प्रेमावेश से डगमगाते कोमल चरणों के नीचे बिछ जाने को मचलते होंगे ।प्रत्येक बहने वाले पवन के झोकों से उनकी भाव सुगंध युगल तक ले चलने का विनीत आग्रह करते होंगे । मेघों से झरती रस की नन्हीं नन्हीं कोमल बूंदें युगल के सुकोमल वारिज वदनों का स्पर्श करते हुये सकुचाती होंगी ॥ उपवन में श्री प्रिया श्रृंगार हेतु पुष्प चयन करने आयी हुयी मंजरियों से लजीले सुकोमल पुष्प विनती करते होंगे कि हमारे संपूर्ण लावण्य को कोमलत्व को माला में पिरो दो न हमारी जगह कि उन कोटि कोटि लावण्य सार सिंधु स्वरूपिणी सुकुमारी श्री प्रिया के लावण्य के उदघि से कोमल श्री अंगो को कैसै स्पर्श करें हम ॥ जहाँ नभ में उदित चंद्र भी अपनी चंद्रिकाओं को प्रेम रस से रंग कर ही छिटकाता होगा कि युगल के रस वपुः का कोमल स्पर्श करना उन्हें । जहाँ कोकिल के मधुर कंठ से युगल की प्रीती का ही मनोहारी गान होता हो ॥जहाँ शुक सारिका नित्य  ही युगल के केली रस कहकर ही अपनी वाणी को पवित्र करते होंगे । जहाँ मेघानन्दी (मयूर )मेघों की प्रतीक्षा न कर वरन स्वयं ही प्रातः अलसाये से युगल के रसपगे नेत्रों के समक्ष तत्सुखार्थ अपनी संपूर्ण कला का प्रदर्शन करते होंगे । जहाँ दिव्य प्रेम की अनन्त रसवंती मूर्तियाँ युगल के एकमेक हुये हृदय के प्रत्येक रस स्पंदन को अपने हृदय में अनुभव करती हुयी नित्य उनके मिलन का भाव सजाती होंगी । जहाँ प्रत्येक निशा लता छिद्रों से न जाने कितने युगल मिलनोत्सुक नयन वह ललाम छटा देख रस  महोत्सव मनाते होंगे । न जाने कितने कर्णपटु युगल के आभूषणों की मिश्रित रस झनकारें सुन कर रस सिंधु में डूबते उतराते होंगे । न जाने कैसा होता होगा न वह रस राज्य ......॥

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॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

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