Skip to main content

मैं क्या दूँ , मृदुला जु

श्री राधा

             मैं क्या दूँ

अक्सर ये जिज्ञासा अनुभव में आती है कि श्री भगवान् कैसै प्राप्त होंगें अथवा श्री वृंदावन कुंज निकुंज की प्राप्ति किस प्रकार होगी । क्या वे कुछ देकर मिल जाते हैं या उन्हें पाने के लिये कुछ देना भी पडता है क्या और यदि हां तो मैं क्या दूँ ॥ एक जीव के हृदय में जगी इस जिज्ञासा ने जैसै प्रेम पथ पर , संपूर्ण प्रीति की रीति पर चिंतन हेतु प्रेरित कर दिया ॥ क्या दे सकते हम उन्हें कुछ उनके योग्य है हमारे पास ये सोचने से पूर्व ये समझें कि देना क्यों ॥ इसके कई उत्तर हैं जो प्रेम की विभिन्न स्थितियों के अनुरूप होते हैं ॥ जो अभी किनारे पर बैठा पूछ रहा है कि क्या दूँ उसके लिये उत्तर है कि भरे घट में कभी कोई अन्य रस समा सकता है क्या , नहीं ना तो उन्हें पाने अर्थात् उनके प्रेम को समाने के लिये प्रथम अपने जनम जनम के संस्कारों से भरे घट को रिक्त करना होगा ॥ ज्ञान मार्ग में , योग मार्ग में  ईश्वर प्राप्ति के साधक को स्वयं ही ये करना होता है परंतु जो प्रेम पथ पाना चाहते हैं वहाँ ये दायित्व स्वयं प्रेमास्पद श्री भगवान ले लेते हैं ॥ वे ही आपके घट को रिक्त कर निज प्रेम से भर देते हैं परंतु शर्त यह है कि आप वास्तव में उन्हें अर्थात् उनके प्रेम को पाने को लालायित हों । वे लेते क्या हैं सर्वस्व ...हाँ  भी और नहीं भी । हाँ इसलिये कि जब तक जीव का अंतःकरण मायिक विषयों में उलझा रहेगा तब तक उसका ममत्व श्री चरणों में केन्द्रित नहीं होगा । ये संपूर्ण सांसारिक उपक्रम जीव के हृदय पर पडे आवरण हैं और प्रेम का निवास स्थल हृदय ही होता है । तो जब तक वह आवरणों से मुक्त नहीं होगा तब तक प्रेम मिलने पर भा उसे अनुभव नहीं कर पायेगा । जिस प्रकार दर्पण ।धूल की परतों से आच्छादित होने पर प्रतिबिंब नहीं दीखता ॥ प्रेम जीव हृदय में पडने वाला श्री भगवान का प्रतिबिंब ही है जो सदा से बना है परंतु अनुभूत नहीं हो पा रहा  आवरण के कारण ॥जैसै ही ये आवरण हटा प्रेम का श्री भगवान का अनुभव होता है । ये सब गूढ़ तत्व चिंतन हो गया । यहाँ इस पर विचार नहीं करना था । तो बात थी कि वे सर्वस्व लेते हैं और नहीं भी तो ये तो सर्वस्व खोने के पश्चात् ही समझ में आता है कि जो गया वो तो सर्वस्व कभी था ही नहीं ॥ परंतु जब तक वे इसे हरते नहीं तब तक अनुभव में आता ही नहीं कि वास्तविक  सर्वस्व है क्या । तब तक तो जीव धन सम्पत्ति परिवारी जन यश मान प्रतिष्ठा लोक वैभव तथा निज देह को ही सर्वस्व जानता है । जबकी वास्तविक सर्वस्व तो वे ही परम प्राण वल्लभ हैं । काँच देकर हीरा मिलता है यहाँ परंतु तब भी संसार कहता कि हमने देखो क्या क्या दे दिया ॥ चलिये ये छोडिए । यहाँ चर्चा क्या दूँ इस पर करनी है हमें । तो ये लिस्ट भी बहुत लम्बी है भई । उन्होंने स्वयं कह दिया है "जननी जनक बंधु सुत दारा तन धन भवन सुहृद परिवार सब के ममता ताग बटोरी मम् पद मनहिं बाँध बरि डोरी "॥ परंतु जानते हैं वास्तव में क्या देना है ..देनी है ममता ॥ ये ममता जिसकी जहाँ जहाँ है वहाँ से हटा उनमें लगानी है बस । यदि आप स्वेच्छा से ऐसा कर सके तो ठीक अन्यथा उन्हें आता ये करना सब और उस समय आप बहुत रुदन करेंगें ॥ तो यदि तैयार हों उस कष्ट के लिये तो ही कूदें इस यज्ञ में ॥

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात