"चलो क्यों न देखें खड़े दोऊ कुंजन की परछाईं।
एक भुजा गहे डार कदम की एक भुजा गलबाँई।।"
सखी के हृदय मंदिर में अति मधुरातिमधुर किलोलें करते युगल मनमाने से रस में डूबते बिहरते रहते हैं।ऐसे रूप रंग ढंग कि शब्द भी मूर्तिमान हुए उनको निहारते रहते और कलम तो भावभीनी चलना ही भूल जाती जैसे।ऐसी सुंदर रसमयी अटकेलियाँ करते परस्पर कभी सुलझते उलझते युगल अति प्रिय लगते और नेत्रों में महकते अंजन से वे दोनों कभी समाते तो कभी मदमाते सुंदर स्यामल गौर जोड़ी से सजे धजे नयनाभिराम पलकों का श्रृंगार बने रहते।पलक मुंदे दो चित्तचोर नयन कोरों के रसभाव में बहते अपने शर्मीले लजीले रसमयी युगल को नेत्रपुतली बन यहाँ वहाँ विचरते देख स्वतः विचरण करते और रसमझधारों में नव नव पुष्पों से सनी वल्लरियाँ सजाते।
निकुंज मंदिर की पगडंडियों पर अतिशय कोमल पुष्पाविंत बंदनवार और अति सुंदर एक झुलन बंधा है जिस पर कोमल वनफूल झालर जैसे लटकते झूल रहे हैं।निकुंज पवन को महकाते एक एक पुष्प पर श्रीयुगल प्रेम रस ओस बुंदियाँ साज श्रृंगार करती इतरा रही हैं।झूलन की पुष्पाविंत डोरियों पर प्रियालाल जु के अति सुकोमल करकमलों का मुलायम स्पर्श चित्त को चुराता हुआ सा झूलन के आसन से लेकर नीचे पदकमलों की छाप तक अति भाव विभोर हो रहा है।प्रियालाल जु की मधुर हंसी की मंद मन को हर लेने वाली किलकारियाँ सी गूँज रही हैं और सखियों द्वारा गाए जा रहे गीत रागिणी की मंद नूपुरों सी अति विभोर कर देने वाली कोमल तालें सुनाई दे रही हैं।झूलन अभी भी पवन सम मंद मंद झूल रहा है जैसे प्रियालाल जु अभी अभी ही उठ कर यहाँ से अन्यत्र चले गए हैं।
सखी इन करकमल व पदचिन्हों को निहारती उन तक आती हुई रस में भीगी हुई सी नेत्रों से अश्रुकण गिराती उन्हें अपने करों से धीरे से स्पर्श करती हुई वहीं बैठ कुछ पल उस अति प्रिय नयनसुख झाँकी की मूक दर्शक बन बैठ जाती है।
क्रमशः
Comments
Post a Comment