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मैं क्या दूँ 2 , मृदुला जु

    मैं क्या दूँ

मैं क्या दूँ ? इस प्रश्न के पीछे के कई भाव हो सकते हैं ॥ एक कि क्या दूँ पाने के लिये दूसरा क्या दूँ देने के लिये तीसरा क्या दूँ उनके सुख के लिये ॥ प्रथम भाव संसारी रखता है जो उनसे कुछ पाना चाहता है चाहें वह सांसारिक भोग हों या मोक्ष । जी हाँ मोक्ष भी तो पाना चाहते न मुमुक्षु ॥ तो पाने की इच्छा वहाँ भी उपस्थित है । पहले भाव की चर्चा की जा चुकी ॥ यहाँ हमें दूसरे भाव की बात कहनी है कि देने के लिये देना ॥ देने के लिये देना कुछ अटपटी बात लगती है क्योंकि पहला भाव और तृतीय भाव की (उनके सुखार्थ देना) हम समझ सकते क्योंकी वहाँ लेना और देना दोनो आते परंतु यहाँ देना ही देना आता तो समझना तनिक कठिन लग सकता ॥ परंतु विश्वास कीजिये ये भी एक अवस्था है । ये अवस्था दोनों अवस्थाओं के मध्य की है। जीव स्वभाव लेने का है । भगवद् स्वभाव तत्सुख देने का और ये इन दोनों की माध्यमिक स्थिती मान सकते ॥ जब जीव भगवद् अनुग्रह से भक्ति में अग्रसर होता है तो भक्तिरस के रसास्वादन के फलस्वरूप मोक्ष की कामना नष्‍ट हो जाती है ॥ और श्री भगवान् की लालसा प्रबल होने लगती है । यही कृष्ण दर्शन लालसा जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचती है तब तक इस विरहानल में बहुत कुछ भस्म हो चुका होता है ॥ इस स्थिती पर पहुँचे जीव पर जब श्री भगवान् अनुग्रह करते हैं तो उसके संपूर्ण विरहानल का पान कर लेते हैं और उस जीव के हृदय में अपने विशुद्ध प्रेम का अणु सिंचित कर देते हैं ॥ बस यहीं उस अवस्था का प्रादुर्भाव होता है । प्रेम की प्रारंभिक अवस्था देना देना और मात्र देना । उस समय जीव को अपना सर्वस्व प्यारे के चरणों में सहज अर्पण कर देने की महान कामना बलवती हो उठती है । यहाँ सर्वस्व सांसारिक कुछ भी नहीं होता वह तो पहले ही भस्म हो चुका है वरन जीव का संपूर्ण निजत्व अर्पित होता यहाँ ॥जीव की सत्ता जिन तत्वों से अस्तित्व पाती है वह निजत्व ॥ मन चित्त अहंकार चेतना बुद्धि विचार कर्म क्रियायें साधन भजन भजनफल समस्त पुण्य समस्त अवस्थाएँ तन मन का रोम रोम बस सब प्यारे के चरणों पर वारने के लिये अकुला उठता है । यहाँ उसका भाव मात्र देना ही देना हो जाता है । प्रति क्षण बस यही अग्नि प्राणों को झुलसाने लगती कि क्या दूँ कैसै दे दूँ ॥ ये देने की महा कामना प्यारे में अनुभूत हो रहे वास्तविक ममत्व की अनुभूति के कारण होती है ॥ ममत्व अर्थात् मेरा । वो परम प्यारा नन्दकिशोर मेरा है वो कन्हाई मेरा है । है सदा से हमारा परंतु हम अनभिज्ञ और वे सदा अनुभव यही करते हमारे प्रति ॥ तो सोचिये कि उनमें वास्तविक ममत्व की तनिक अनुभूति होने पर जीव अकुला उठता सर्वस्व न्योछावर करने हित तो जो कह रहे "ममैवांशे जीवलोके जीवभूत सनातनः" उनके हृदय की क्या दशा होती होगी जीव मात्र के प्रति ॥  तो सार यह है कि हृदय अकुलाता है संपूर्ण निजता संपूर्ण स्व उन्हें दे देने के लिये और यहीं इसी स्थिती पर प्रकट होता है ब्रज भाव , वास्तविक ब्रज भाव ॥ ब्रज लीला संपूर्ण  चराचर लीला से श्रेष्ठ तथा विलक्षण क्यों है यहीं अनुभव हो पाता है ॥ जहाँ देने का भाव हृदय में उदित हुआ समझ लीजिये आप ब्रज की सीमा रेखा पर पहुँच गये । बस एक पग और तत्सुख का और मिल गया ब्रज मे प्रवेश का प्रवेशपत्र आपको । अब आपका ब्रज प्रवेश निश्चित है बस समय कितना लगेगा ये श्री ब्रजेश्वरी की कृपा दृष्टि पर निर्भर है ॥ यह भाव मात्र उन्हीं प्रेम अधिष्ठात्री की कृपा कोर का परिणाम है न ॥
इसके आगे तृतीय अवस्था पर चर्चा अगले भाग में करें तो ।

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