"रूप कौ फूल रँगीली बिहारिनि प्रेम कौ फूल रसीलौ बिहारी
फूलि रहे अनुराग के बाग में राग कौ रंग बढ़्यौ रूचिकारी"
अभी अभी ही जैसे प्रियालाल जु झूलन से उठ उसी दिशा में पुलिन के ऊपर से गुज़रे हैं।सखी पदचिन्हों से युगल चरणों के चंदन सरीखे पराग कणों को मस्तक पर धारण कर युगल हस्ताक्षर किए झूलन के बंदनवारों को सहलाती वहाँ से चल देती है।उसका मन प्रेम रस में चूर मदमस्त पवन में उड़ते एक बादल की भांति आगे बढ़ चला पर उसके कदम अभी भी उसे पीछे ही रूकने का संकेत कर रहे हैं जहाँ झूलन की झुनक झुनक किंकणियों सी मधुर ध्वनि शायद उसे श्यामाश्याम जु के पुलिन से नीचे होने का अंदेशा देना चाह रही हो।झूलन पर इतराते महकते पुष्प उसे झकझोर कर कहना चाह रहे हों कि तुम जिन्हें तलाश रही हो वो हमारे रोम रोम में समा चुके और महक बन बिखर चले गए पुलिन की ओर।
सखी पीछे मुड़ती झुकती पग आगे धरती है।पुलिन पर आते आते उसके रोम रोम में सिहरन और अश्रु बहने लगते हैं।प्रियालाल जु के अति स्नेह के रतिचिन्ह उसके तन में कम्पन पैदा कर देते हैं जिसकी तीव्रता के कारण वह आगे एक कदम भी बढ़ सके ऐसी स्थिति में नहीं है।श्रीधाम की धरा पर पुलिन की नरम सौंधी पवन में प्रियालाल जु के मिलन व बिहरन की जो गहन श्वास तरंगें हैं वो उसे जैसे बहा ले जा रहीं हैं और वह रूकती पलटती झुकती बार बार बैठ कर जहाँ जहाँ प्रियालाल जु ने पग धरा और उनकी मुलायम सुकोमलतम चाल से सिंचित धरा पर जो पुष्प खिले उन्हें सहलाती जा रही है।
मिलित तनु श्यामाश्याम जु यहाँ से गलबहियाँ डाले हुए प्रेम रस में विभोर गुज़रे होंगे और पुलिन की अटालिकाओं से लिपटते हुए प्रेम की गहन करावलियों में डूबे भी होंगे।सखी वहीं बैठ पुलिन पर कुछ क्षण भावभरी सी युगल लीला में मुग्ध बैठी मौन सेवापद हृदयांकित करती रसस्कित राह को निहारती रहती है।
क्रमशः
जयजय श्रीयुगल!
जयजय वृंदावन !!
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