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पिय सुख तृषा श्रीराधा , मृदुला जु

पिय सुख तृषा श्री राधिका

निकुंज महल की रस सेज पर रस युगल परस्पर आलिंगित जैसे नील पीत कमलों का समूह आपस में उलझा हुआ सा लिपटा हुआ सा अपनी दिव्य आभा से पूरे कक्ष को आलोकित कर रहा है ॥ प्यारे के सदैव चंचल रहने वाले नयन भ्रमर इस समय समस्त चंचलता खोकर एकटक प्यारी के मुखकमल के रसपान में निमग्न हैं ॥ जितना पीते जा रहे हैं उस सौंदर्य के सार रूप प्रिया मुखकमल के रस को नयनों से उतनी ही गहन तृषा और उदित होती जा रही है ॥ और और और पियो न प्यारे ....॥ प्रियतम के नेत्रों की कभी न मिटने वाली यह रस तृषा है क्या वास्तव में ॥ ये रस तृषा अन्य कोई नहीं वरन स्वयं श्री प्रिया ही हैं जो प्यारे के नेत्रों में उन्हीं के सुख की अनन्त लालसा लिये समायी हुयीं हैं ॥ प्रियतम को रसभोग कराने की अनन्त लालसा ही तो श्री प्रिया हैं न ॥ ज्यों ज्यों लाल रसपान कर रहे हैं त्यों त्यों प्यारी और अधीर हो रहीं हैं और अधिक रसपान हित अकुला रहीं हैं ॥ क्षणार्ध को भी प्रियतम के नेत्र रससिंधु से न हटे वरन और गहरे उतरते जायें ॥ कैसी लालसा है ये ॥ बाहर भी वहीं हैं और भीतर भी वही । क्यों हैं भीतर , ये कारण बडों गहन है । हैं कि प्यारे डूबे रहें अखंड रस में ॥ जो स्वरूप बाहर है वही भीतर कि अखंड सुख भोग होता रहे प्यारे का ॥ ना केवल समस्त इंद्रियों में प्यास रूप प्रकट हैं वरन हृदय में कामबीज अर्थात् कामनाओं का बीज स्वरूप भी वहीं हैं ॥ एक नहीं अनन्तानन्त कामनाएँ हैं । समस्त एक साथ विद्धमान श्री प्रिया में ॥ नेत्रों की रस लालसा बन रूपरसपान करा रहीं हैं तो इधर हृदय में भी नवीन प्यास रूप खिल रहीं हैं ॥ अधर सुधा पान की लालसा । गहन लालसा पिय सुख की ॥ नेत्रों से पी रहे हैं लाल जू पर प्यारी की प्यास नही बुझ रही वह तो और बढ रही है ॥ अकुला रही हैं पिय हृदय में बैठ कि और गहन और गहन .....॥ प्रियतम तो सदा आधीन ॥अब अधरों से भी सुख पा रहे और और और ...॥ बढती जा रही प्यारी की तृषा तो प्रियतम की तृषा बढ़नी भी स्वभाविक ही ॥ अब रोम रोम से गहन सुख भोग करवाने की लालसा ॥ पिय के चित्त में फिर नवीन रसउत्कंठा बन हिलोरे लेने लगीं हैं श्यामा ॥ प्यारे के कोमल करों में भी यही तो समायी हैं ॥ प्रियतम करो से स्पर्श कर रहे अब रस भंवर रूपी अंगों का ॥ रोम रोम में प्यास बनी प्रिया ही प्रिया का मधुर स्पर्श प्रियतम को दे रहीं हैं ॥ हर इंद्रिय में वही समायी हैं और हर इंद्रिय से रसपान करा रहीं हैं ॥ पिय हृदय में कामनाओं को उद्गम भी तो यही हैं । चित्त में लहराती अनन्त रस लालसायें भी यहीं हैं ॥ उद्देश्य केवल एक प्यारे को सुख हो , अपार सुख हो अखंड सुख हो ॥ वास्तव में पिय सुख की अनन्त तृष्णा सिंधु ही तो हैं श्री प्रिया हैं ॥ समस्त सखियाँ इसी पिय सुख तृष्णा के अनन्त सिंधु की अनन्त लहरें हैं ॥ एक एक सखी प्रिया की एक एक लालसा है पिय सुख की ॥ और श्री प्रिया इन समस्त लहरों का उदगम , इन समस्त लहरों को एकसाथ समग्रता से धारण करने वाला महाभाव सिंधु ॥

प्यारे के रोम रोम बसी प्यारी करवाती उज्जवल रसभोग ॥

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