सरस प्रसंग
एक बार एक मयूर श्री नन्दनन्दंन की प्राप्ति की अभिलाषा से ब्रज मंडल में आया ॥ श्रीब्रजराजकुंवर के दर्शनों की हार्दिक अभिलाष लिये नंदभवन के ड्योढी पर आकर बैठ मधुर स्वर से उन्हें पुकार रहा है ॥ कितना समय व्यतीत हो गया परंतु वे कुंवर कान्ह महल से बाहर ही नहीँ आ रहे ॥ न जाने कितने दिवस निशा व्यतीत हो चले परंतु यशोदानंदन तक जैसै उसकी करुणा पुकार पहुँच ही नहीं पा रही ॥ निराश हुआ वह मोर ब्रज की गलियों में आकर अश्रुपात करता हुआ बस हा कृष्ण हा कृष्ण पुकारने लगा ॥ उसी समय उस पथ से बरसाने की एक गोपिका जा रही थी ॥ उसने जब उस सुंदर मोर को अश्रुधारा बहाते देखा तो उसके क्रंदन को कारण पूछने लगी ॥ दुखी मोर ने श्री नंदनंदन की निष्ठुरता का संपूर्ण वृतांत कह दिया ॥ सुनकर गोपी बोली अरे प्यारे मयूर वह छलिया तोहे दर्शन ना दीनो तो तू निराश काहे हो रह्यो है ॥ मैं तो कू निज स्वामिनी के पास ले चलुंगी ॥ वे परम कृपामयी अतिशय उदार करुणास्वरूपिणी हैं ॥ वे कबहु काहू को निराश नाय करें हैं ॥ ये सुनकर मोर हर्षित होता हुआ उस गोपी संग बरसाने चल दीना ॥ बरसाना आहा ....बरसाने में प्रवेश पाते ही उसका रोम रोम प्रेममय हो उठा ॥ वह सखि उस मयूर को श्री वृषभानुमहल ले आई ॥ लाकर सौंप दीना श्री वृषभानुनंदिनी को के श्री चरण कमलन में और सब कथा कह सुनाई कि किस प्रकार हा कृष्ण हा कृष्ण की पुकार करता मिला वह मयूर ॥।यह सुनते ही श्री वृषभानुकुमारी के नेत्रों से झर झर अश्रु रूपी मुक्ता झरने लगे ॥ उन प्रेम स्वरूपिणी ने तत्क्षण मयूर को अपने कोमल करों से उठा निज अंक में बैठा लीना तथा अति प्रेम विह्वला हो सहलाने लगीं वा को ॥मयूर को अति नेह दीनो श्री कुंवरी जू ने ॥ वा को स्वयं निज करों से दाना चुगाने लगीं ॥।श्री कुंवरी का अति नेह पाकर मयूर कृततृत्य हो गया ॥ उसका रोम रोम प्रेम से पग गया ॥ अब उसी प्रेम मे वह बरसाने की गलियों नाचता झूमता प्रमुदित होकर घूमता ॥ एक दिवस बरसाने आये नंद कुंवर की दृष्टि वा पर पडी तो बस हट ही न सकी ॥ श्यामसुन्दर तो मोहित हो गये उसकी प्रेममयी छटा पर ॥अब वे किसी योगियों के ध्यान में भी न आने वाले हठीले कुंवर पाछें पाछें फिर रहें हैं वा मयूर के और वह मयूर तो बस राधा राधा राधा उच्चारित करता उड़ता ही जा रहा ॥।नंदनंदन अकुला रहे उसे हृदयालिंगन देने को परंतु मयूर तो बस श्री राधा प्रेम में पगा उन्हीं की सेवा को व्याकुल ॥ जिस मोर को दर्शन तक न प्राप्त हो सके थे कुंवर जू के वही मोर अब उन्हें अपने पाछें पाछें फिरने को विवश कर दीना ॥ यह महिमा है हमारी श्री कुंवरी की ॥ किन्हीं संत के मुख से सुनी इस रसीली कथा के पीछे छुपे मर्म को भी तो जानना शेष अभी हमें ....॥
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