"प्रिय की प्रीति की बात सुनि हिय में होत हुलास
दासी जहाँ लगि प्रिया की ह्वै रहे तिनके दास"
वन उपवन में विहरते श्यामा श्यामसुंदर जु की वृंदा सखी ऋतु पुष्परागों व घनदामिनी से अपने प्राणप्यारों के भावों का श्रृंगार कर चुकी जिन्हें श्यामसुंदर श्यामा जु के अनुराग अनुकूल बताकर अपनी प्रियतमा के ही आधीन बताते हैं तो अब श्यामा जु भला कैसे ना अपने प्रियतम के सुखहेतु सदा रसनिमीलित अपनी सखियों की दासता ना सुनातीं।
श्यामा जु के प्रत्येक अंग में एक एक कर हर सखी अपने हाव-भाव बताती प्रिय श्यामसुंदर की भुजाओं की श्रृंगार श्यामा जु का रतिरूप बन समाने लगती है।श्यामसुंदर एकटक इन सखियों के श्यामा जु में रतिरस बन समाना निरख कर प्रेम प्रवाह में बह रहे हैं और इनके प्यासे दृग दास बने संग संग रसदेह पर गमन करने लगते हैं।
श्रीयुगल की परस्पर निहारन को निहारती सखी हर भाव को संजोकर पलकों में पुतलियों का श्रृंगार करना चाहती है पर वह स्वयं रतिरस से अति व्याकुल हुई श्यामा जु के चरणों को सहलाती एक गहन स्पंदन लिए वहीं लीन हो जाती है और तब आरम्भ होता है एक एक कर श्यामा जु के सभी अंगों का रति श्रृंगार प्रिय के अर्पण होने के लिए।
क्रमशः
जयजय श्रीयुगल !
जतजय वृंदावन !!
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