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द्वेत अद्वेत , मृदुला जु

द्वेत अद्वेत

श्यामसुन्दर का सुख उनका रस श्री श्यामा ॥ इस भाव का इस कथन का मर्म है क्या ॥ हम मायिक जीव कभी अद्वैत की कल्पना कर ही नहीं सकते ॥सदा द्वेत ही चित्त में प्रकट होता है । श्याम का सुख श्री राधा सुनकर कल्पना में आता है कि एक कोई श्री राधारानी है जिनसे श्यामसुन्दर को सुख मिलता है ॥ सदा स्थूल जगत मायिक जड तत्व को ही इन जड इन्द्रियों से अनुभव किया है जाना है सो सूक्ष्म तत्व का चिंतन कर ही नहीं पाते ॥ श्री किशोरी का नाम आते ही कल्पना में कोई अति सुंदर नारी ही आती है जो श्री कृष्ण को सुख देती होंगी ॥ परंतु हमारा यह मायिक मन यह चिंतन नहीं कर पाता कि वे कोई स्त्री नहीं हैं वरन स्वरूप शक्ति हैं ॥ श्री श्यामसुन्दर का रस उनका सुख होने से तात्पर्य कि उनका स्वरूपभूत रस जो नित्य उनसे अभिन्न है वही लीला हित मूर्तिवंत हुआ है ॥ श्यामा से सुख नहीं वरन श्यामा ही सुख हैं जिस प्रकार श्री कृष्ण में आनन्द नहीं वरन श्री कृष्ण ही आनन्द हैं ॥ जगत में सदा वस्तु में पदार्थ में व्यक्ति में परिस्थितियों में आनन्द की कल्पना की जाती सो भगवद् विषय में भी हम यही समझते कि उनमें आनन्द है उनमें रस है जबकि स्पष्ट उद्घोष किया वेद ने "रसौ वै सः " ॥ अर्थात् वह रस है ॥ उसी प्रकार श्यामा उनका निज रस निज आह्लाद हैं ॥ आनन्द या रस का मूर्तिमान रूप हम चिंतन नहीं कर पाते ॥अभेदता एकत्व समझ नहीं सकते जब तक अंतःकरण में कृपा का प्रकाश न हो ॥ रस की ऐसी मूर्ति जिसका प्रत्येक अणु रस ही है जिसका नाम , गंध , वाणी स्पर्श , दृष्टि सब कुछ रस ही है ॥ वाणी से रस मिले ऐसा नहीं वरन वाणी ही रस है ॥ इसी प्रकार श्री श्यामा श्यामसुन्दर का मूर्तिवान रस विग्रह हैं ॥ जो भीतर हैं वही बाहर भी हैं ॥ अपने रस के साथ खेल से स्वतः ही उनका रस बढता जाता है क्योंकि इसके मूल में प्रेम है ॥ जगत के मूल में द्वेत है जबकी प्रेम का आधार अद्वेत है ॥ इसी कारण प्रेम के वास्तविक मर्म को मन या बुद्धि से समझ पाना असंभव है ॥ यह केवल हृदय से अनुभव किया जा सकता है जगत में दो वस्तु हैं मैं और मेरा । सकल सृष्टि ही इस पर संचालित है । मैं, मेरी देह मेरी आत्मा मेरा मन मेरी बुद्धि मेरा चित्त मेरी वस्तु मेरी संतान मेरा नाम आदि आदि समस्त जीव सत्ता ही मैं और मेरे पर टिकी है ॥ परंतु भगवद राज्य में सिर्फ एक तत्व है द्वेत नहीं ॥ मैं और मेरा पृथक नहीं ॥ मन आत्मा हृदय बुद्धि देह आदि में भेद नहीं है ॥ इसी प्रकार मेरा नामक जो कुछ भी कहा सुना जाता वह वास्तव में भिन्न है ही नहीं कुछ भी ॥भगवान की समस्त वस्तु भगवान ही हैं ॥ वहाँ भेद है ही नहीं ॥ इसी द्वेत बुद्धि के कारण जीव भगवान की लीला देखकर मोहित हो जाता है ॥ जबकी संपूर्ण लीला स्वयं में स्वयं से ही है ॥  जीव जगत यहाँ की ही भाँति वहाँ युगल का अर्थ करते हैं ॥ युगल अर्थात् दो भिन्न अस्तित्व ॥ जबकी वहाँ युगल का अर्थ है एक के ही दो रूप ॥ इस द्वेत का कारण माया शक्ति है ॥ वही अभेदता पर भेद आरोपित कर समस्त जागतिक लीला का संचालन कर रही है ॥ ज्ञानी इसी द्वेत का अतिक्रमण होने स्वयं को ब्रह्म से एकत्व का बोध प्राप्त करते हैं ॥ प्रेमी भी एकत्व का अनुभव करता है परंतु वह जानकर भी भगवद् सुखार्थ द्वेत स्वीकार करता है ॥ यद्यपि लेश मात्र भी द्वेत होता नहीं वहाँ परंतु मान लिया जाता है रस के हित ॥उसी प्रकार भगवान भी निज योगमाया के आश्रय से द्वेत स्वीकार करते हैं लीला रसास्वादन हित ॥ स्व में स्व से स्व की लीला ही है संपूर्ण भगवद् लीला परंतु रस लाभ हित द्वेत का आरोपण अवश्यंभावी है वहाँ ॥

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