मैं क्या दूँ सार भाव - 4
श्री राधा ...
मैं क्या दूँ ....एक सामान्य सी जिज्ञासा से उत्पन्न हुये भाव प्रवाहों को अभी तक कुछ साधारण से शब्दों में बांधने का तुच्छ सा प्रयास किया ॥ इतने विस्तृत विषय और उसकी गूढता को कुछ पंक्तियों में समेट पाना दुष्कर होता है फिर भी भगवद् इच्छा अनुरूप जो लिखा गया वह उनकी कृपा ही है ॥ यह सब कहने के उपरांत भी कुछ रिक्त सा लग रहा हृदय में कि जैसै कुछ रह गया ॥ जो रहा वह सार है इस भाव का और वह है कि जिसे देने का भाव हृदय में कृपास्वरूप आया स्वयं उनके हृदय में क्या भाव है ? बस यही कहना शेष था और इसे कहे बिना सब अपूर्ण है ॥
जीव के हृदय में देने की भावना का मूल उद्गम वहीं हैं जिन्हें देने का भाव किया जा रहा ॥ जिनके भाव के अणु मात्र सीकर को पाकर जीव हृदय सर्वस्व न्योछावर करने को उद्धृत हो जाता है उन अनन्त प्रेमार्णव परम प्रेम स्वरूप श्री भगवान् के प्रेममय हृदय की कल्पना भी हमारे चित्त में नहीं आ सकती ॥ उन्हीं के प्रेमाणु को पाकर जीव प्रेमी होता है ॥ उन्हीं के अनन्त अपार ममत्व का सूक्ष्म सा अंश पाकर उसे वास्तविक ममत्व का , प्रीति का बोध होता है ॥ स्वयं अपनी निज वस्तु देकर वही जीव को प्रेम करना सिखाते हैं और फिर स्वयं ही उसके प्रेम का सत्कार करते हैं ॥ प्रेमाणु स्पर्श से व्याकुल स्पंदित हृदय के भावपूर्ण समर्पण को स्वयं अति भाव से स्वीकार करते हैं ॥ ये संबंध अति विलक्षण अति रसमय परम अनिर्वचनीय है ॥ चिंतन की सीमाओं से परे है यह प्रेम ॥ प्रेमी रसिक हृदय के लिये वे प्रियतम प्रेमास्पद होतें हैं परंतु उनके लिये जीव मात्र प्रेमास्पद है उनका ॥ माया मोहित जीव उनके प्रेम से अनभिज्ञ है अतः वहाँ वे ( श्यामसुन्दर ) रसास्वादन नहीं कर पाते परंतु रसिक हृदय जहाँ उनके ही प्रेम का प्रतिबिंब स्पष्ट आलोकित हो रहा वहाँ वास्तव में प्रियतम के मन की हो पाती ॥ रस पीना मात्र ही उनका स्वभाव नहीं वरन रसदान करना रसपान कराना उनका वास्तविक सुख है ॥ और यहीं स्वभाव जब कोई हृदय पा जाता अर्थात् उनका प्रतिबिंब हो उठता तो वही हृदय रसिक की श्रेणी में आ पाता ॥ निज बिंब के अनुरूप वह भी रसदान करने प्रियतम को रसपान कराने को व्याकुल रहता ॥ अब दोनों ओर एक ही कामना नित्य वर्धमान रहती परस्पर को सुखदान करने की ॥ दोनों ओर से नित नवीन तरंगें एक दूसरे को भिगोने के लिये सदा तरंगायमान रहतीं ॥ दोनों परस्पर के सुख के लिये रसपान भी करते और रसदान भी ॥ अपने प्रेमी (जो वास्तव में श्यामसुन्दर के लिये उनका प्रेमास्पद होता है ) को सुख देने हित उन परम निष्काम पूर्णकाम के हृदय में नित्य अनन्त लालसाओं का सागर लहराता रहता है और प्रेमी , जिसके लिये श्यामसुन्दर प्रेमास्पद हैं उसके हृदय में प्यारे की लालसाओं की पूर्ति की लहरें मचलतीं रहतीं हैं ॥ दोनो दोनो के लिये रस की सुख की वृद्धि करते रहते ॥ और ये संपूर्ण रसव्यवहार स्वतः ही गतिमान रहता है ॥ वहाँ न तो श्यामसुन्दर को अपनी भगवत्ता का स्मरण है और ना ही सम्मुख प्रेमी को ॥ दोनों मात्र प्रेमी प्रेमास्पद का दिव्य निर्मल खेल खेल रहें हैं और उसी के अनिर्वचनीय रस में निमग्न रहतें हैं ॥ संपूर्ण चराचर को विस्मृत करा देने वाला प्रेम का रस श्यामसुन्दर को महान रसदान करता है ॥ मुमुक्षु तक समस्त जीव सत्ता मात्र स्वयं के हित के लिये , स्वयं के आनन्द के लिये प्रयासरत रहती है परंतु एकमात्र भगवद् प्रेम का सीकर पाये रसिक प्रेमी ही श्री भगवान् के सुख का चिंतन कर पाते हैं क्योंकि वहाँ उन्हीं परम प्रेमी श्रीश्यामसुन्दर का प्रेमकण प्रकाशित हो रहा ॥ श्री श्यामसुन्दर का स्वभाव उनका प्रेम यद्यपि वाणी का विषय नहीं हैं परंतु फिर भी कहे बिना रहा नहीं जाता ॥ अपने प्यारों को सुख देने के लिये वे न जाने क्या क्या करते न जाने कौन कौन सी उपाधियों से विभूषित किये जाते क्योंकि उनका स्वभाव उनका सा स्वभाव पाये बिना जानने में नहीं आता जिसके कारण स्वयं ब्रह्मा तक को उनके भगवत्ता पर संदेह होने लगता तो सामान्य मनुष्य की गणना ही क्या ॥ परंतु वे अनन्य प्रेमी अपने प्यारे को सुख देने के लिये किसी के आरोपों की चिंता नहीं करते ॥ उनकी महानता का कोई सूक्ष्म सा अणु हृदय में आलोकित होते ही हृदय कह उठता है नेति नेति ॥ दिव्य अनिर्वचनीय प्रेम का यह परम अद्भुत खेल अनन्त काल से इसी प्रकार खेला जा रहा है और खेला जाता रहेगा ॥
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