Skip to main content

श्यामसुंदर का वेणु वादन , अमिता बाँवरी जु

श्यामसुंदर का वेणु वादन
********************

प्रियतम ने वेणु नाद छेड़ दिया है, जैसे ही यह प्यारी जु के कर्णपुटों को स्पर्श हुआ हृदय में प्रेम तरंग हिलोरे लेने लगी। श्री प्रिया एकदम व्याकुल हो उस ओर भाग उठी जहाँ उसे अपने प्रियतम की वंशी की ध्वनि सुन रही है। स्वयम ही तो श्री प्रिया के हृदय ने प्रियतम को निमंत्रण दिया था मोहना रे ! छेड़ मुरली की तान.....। अब वही तान में अपना सुन श्री प्रिया दौड़ पड़ी है अपने प्यारे प्रियतम की और, अपने आतुर नेत्रों से अपने प्राणधन की खोज में। अहा ! प्रियतम की वेणु तो राधा राधा राधा ....पुकार रही है तो किस प्रकार श्री प्रिया अपने प्रियतम की पुकार सुन धीर धर सकती है।

    दूर से निहार रही है अपने प्राणधन श्री प्रियतम जो यमुना पुलिन पर कदम्ब के तले अपनी ललित त्रिभंगी मुद्रा में निमीलित नेत्र कर अधरों पर वेणु रख अपनी प्राणसंगिनी को पुकार रहे हैं। सहसा वहीं रुक जाती है कहीं मेरी पायल के घुँघरू प्रियतम के आनन्द को भंग न करें। कहीं बढ़ी हुई स्वासों की हलचल से प्रियतम के आनन्द में विक्षेप न हो। आज श्री प्रिया अपने नेत्रों से ही जैसे प्रियतम की छवि का पान करना चाहती है। दूरी से ही उन्हें निहार रही है। प्रियतम का हृदय सदैव एक ही नाम पुकारता है राधा राधा राधा ..... यही नाम प्रियतम वंशी में भर भर सम्पूर्ण सृष्टि में आनन्द भर रहे हैं । श्री प्रिया की व्याकुलता बढ़ती जा रही है वहीं श्री प्रिया अपने प्रियतम के इस आनन्द में कोई विक्षेप भी नहीं डालना चाहती। श्री प्रिया के नेत्र बन्द होने लगते हैं । कर्णपुटों से एक ही नाम भीतर जा रहा है राधा राधा राधा .... परन्तु वह नाम हृदय में समाकर मुख से निकल रहा है श्याम......सुंदर। जैसे जैसे राधा राधा नाम सुनती जा रही है व्याकुलता बढ़ कर अपने प्रियतम का नाम लेती जा रही है , जैसे अब और रुका नहीं जा रहा श्री प्रिया से । नेत्रों में प्रियतम की छवि भरती जा रही है और मुख से नाम निकलता है श्यामसुंदर और श्री प्रिया मूर्छित हो वहीं गिर जाती है। श्री प्रिया देह से तो मूर्छित हो गई है परंतु उसके नेत्रों से जो प्रियतम की रूप राशि भीतर उतर चुकी है हृदय की गहराई में अपने प्रियतम के संग मूक मिलन में ही लीन हो चुकी है। धीरे धीरे चेतना लौटती है और अधरों पर एक ही नाम है श्याम....सुंदर श्याम ....सुंदर श्याम.......

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात