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तव उर प्रीति , मृदुला जु

तव उर प्रीति

तव उर प्रीति मम् सब पूंजी ...॥ अर्थात् तुम्हारे हृदय की प्रीति ही मेरी समस्त पूंजी है ॥ इस एक पंक्ति के अनेक अर्थ निज निज भाव अनुरूप हो सकते हैं परंतु जिस भाव से यह उदित हुयी वह क्या है ॥ किसी जीव के हृदय से निकले ये उद्गार कि हे प्रियतम श्यामसुन्दर तुम्हारे हृदय का प्रेम ही तो मेरी संपूर्ण पूंजी है ॥ मेरे पास तो कुछ भी नहीं है ॥ ये तुम्हारे हृदय का प्रेम ही तो मुझे तुम तक लाया है ॥ वास्तव में किसी भी जीव के पास कुछ भी ऐसा है ही नहीं जो उसे तुम तक पहुँचा सके ॥ तुम्हारा प्रेम ही भजन है तुम्हारा प्रेम ही साधन है मेरा ॥ हे प्राण प्रियतम तुम्हारा प्रेम ही तो प्रेम पथ है मेरा तुम्हारा प्रेम ही तो गति है ॥ तुम्हारे प्रेम के अतरिक्त और तो कुछ भी नहीं जो "मैं तुम्हारा हूँ , तुम्हारे लिये हूँ "कि अनुभूति जगा सके मुझमें ॥ हे प्रियतम तुम्हारा प्रेम ही प्रेम रज्जु रूप मुझे खींच लाता तुम तक ॥ हे प्यारे आपमें जो यह आकर्षण है वह यही प्रेम तत्व तो है ॥ जिस प्रकार कुंऐ में गिरे मनुष्य को रज्जु की सहायता से ऊपर खींचा जाता है वैसै ही तुम्हारे हृदय का प्रेम ही तो वह आकर्षण रूपी प्रेम तत्व है जो जीव को तुम तक खींचता है ॥ जिस प्रकार चुंबक लौह को खींचता है चुम्बकत्व से वैसै ही तो ये प्रेमतत्व ही तुम्हारा आकर्षण है ॥ तुममें जो यह असीम अगाध प्रेम है बस यही मेरा संपूर्ण आश्रय संपूर्ण अवलंबन और आधार है ॥ क्योंकि तुम अनन्य प्रेमी हो इसिलिये मैं तुम्हारा हो सका हूँ ॥ तुम्हारे हृदय के प्रेम ही एकमात्र कारण है जो तुम्हारा हो सका हूँ ॥ मो पे प्रीति है ही नहीं तुम्हारी प्रीती ही मेरा भजन बनती साधन होती साधना होती ॥ कृपा रूप हो तुम्हारी प्रीति ही तो सन्मुख करती मुझे तुम्हारे ॥कैसै कैसै बखान करुँ ॥ तुम्हारी प्रीति ही तो मेरे संपूर्ण गुण बन रहती वही मेरा रूप सौंदर्य भी है ॥ तुम्हारा प्रेम ही तो पवित्रता शुचिता एकाग्रता निर्मलता तन्मयता श्रद्धा विश्वास निष्ठा और भक्ति है मेरी ॥ जो कुछ भी मैं करता हुआ दिखता हूँ या मुझमें दिखाई देता वो सब केवल और केवल तुम्हारे हृदय का अनन्त प्रेम मात्र है प्रियतम ॥ तुम्हारे हृदय से जो लग पाऊँ कभी तो केवल तुम्हारे ही प्रेम के कारण ॥ इन नेत्रों से बहने वाले अश्रु , हृदय का रस तुम्हारा ही तो प्रेम है प्यारे ॥ तुम्हारे लिये तडप , विरह और जगत से वैराग्य ये सब वही प्रेम है प्रियतम ॥ तो बताओ प्यारे कहीं कुछ है क्या मुझमें ऐसा जो तुम तक ले चले मुझे तुम्हारे ही हृदय के प्रेम के सिवाय ॥ तो क्यों न कहुँ " मम् सब पूंजी तव उर प्रीती ।तव उर प्रीति मम् सब पूंजी " ॥

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