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परम कौतुकी नन्दकुमार , मृदुला जु

परम कौतुकी नन्दकुमार

धीरे से अपने कोमल चरणों पर उचक कर विशाल कमल दल लोचनों से हृदय मंदिर में झांकते ये नवघन सुंदर नीलमणि ॥ आहा विशाल रसीले रसपगे रस छलकाते जिज्ञासा से भरे नयनों से देखते जीव के हृदय को ॥ किसी अन्य को देख लजीले ये नन्दकिशोर झट से छिप जाते ॥ परंतु यदि हृदय रिक्त हुआ तो दर्पणवत् इन्हीं के त्रिभुवनमोहन प्रतिबिंब की नन्हीं सी झलक दिखा देता इन परम भोले रसिकलाल को ॥बस अब कहीं नहीं जाना मुझे आह .....कितना सुंदर है रे तू कितना प्यारा ॥ मुग्ध हो चुके अब ये स्वयं की ही हल्की सी झलक पर ॥ धीरे से झाँकने वाले ये परम कौतुकी हृदय द्वार खोल भीतर प्रवेश कर लेते ॥ हृदय दर्पण में दिखते अपने ही प्रतिबिंब की धूमिल सी रेखाओं को अपने सुकोमल कर पल्लवों से स्पष्ट करते ॥ दर्पण पर पडे धूल के आवरण को साफ करते ॥ ज्यों ज्यों आवरण हटता जाता इनका प्रतिबिंब और स्पष्ट होता जाता ॥ आहा .....आत्ममुग्ध से ये आत्महारा होने लगते ॥ स्वयं को निहारते नहीं अघा रहे ॥ कैसो रूप है कैसों माधुर्य ॥ अबोध शिशुवत निज प्रतिबिंब पर रीझे हुये ये रिझवार ॥ जैसो ये करें वैसो ही प्रतिबिंब करे ॥अरे कितना प्रेमी हे रे तू .....॥ मैं तो कहीं ना जाऊँ तो संग ही खेलुंगों अब ॥ तेरे प्रेम से विवश भयो हूँ ॥ तेरे आधीन हूँ ॥ मो को तो बस तू ही भावे ॥ बिंब की प्रतिध्वनि करता प्रतिबिंब ,मोहे तो बस तू भावे ,भावे बस मोहे तू ॥ तू मेरा सर्वस्व मेरा सर्वस्व है तू ॥ एक क्रीड़ा आरम्भ हो चुकी है बिंब और प्रतिबिंब के मध्य ॥ इनका निर्मल प्रेम इनका रस इनका माधुर्य इनका स्वभाव इनका समर्पण इनका समस्त स्वत्व ही तो प्रतिबिंब बन खेल रहा इन संग ॥ और ये रसपान कर रहे अपने ही चकित कर देने वाले रस का ॥ भीतर विराज द्वार बंद कर चुके ये ब्रजराजकुमार अपने ही स्वरूप ये खेल रहे हैं अब ॥ स्वयं को भी विस्मृत कर केवल अपने प्रतिबिंब की प्रेम माधुरी में ही लीलारत हैं ॥ उसी मनमोहन रूप पर मुग्ध ॥ दो समझते ये उसे और स्वयं को और क्यों न समझें क्रीड़ा एक में तो नहीं होती न , दो की अनिवार्यता उसके लिये ॥ अपने सा दूजा कहाँ से लावें अब तो ....तो क्या चतुर शिरोमणि ऐसे ही थोडी ना कहे जाते ये ॥ खोजते रहें योगीजन कहीं भी ये तो यहाँ छिप कर स्वयं से ही खेलने में मग्न हैं ॥ कोई इन्हीं की प्रतिध्वनि ही पहुँच सकती अब यहाँ तक अन्यथा तो उच्चारते रहिये वेदमंत्र कितने ही ॥ सदा के जिज्ञासु ये , झाँकते रहते जीव हृदय में कि कहीं कोई सुंदर सा क्रीडनक (खिलौना ) छिपा तो नहीं कहीं ॥

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युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

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