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जहाँ प्रीतम तिहि देस की प्यारी , संगिनी जु

"जहाँ प्रीतम तिहि देस की प्यारी लागत पौन
प्रेम-छटा जाने बिना यह सुख समुझै कौन"

कालिन्दी के पुष्प सारिकाओं से रस विह्वल तलहटियों में अतिशय रतिरस की उत्कण्ठा में निमग्न युगल यहाँ से वहाँ कमलदलों से घिरे हुए सुरत समरावेश में विहर रहे हैं।काली मेघ घटाएँ जो अभी अभी धरा को भिगोने को अति आतुर थीं एक बार फिर से छट सी गई हैं और चहुं ओर प्रकृति रसपूर्ण राधागोविंद जु के प्रेम में मग्न हवाओं संग झूमती नाच गा रही है।श्यामा श्यामसुंदर जु अति रतिरसमय हुए रसवार्ता करते यहाँ विराजित प्रकृतिरस का पान कर रहे हैं।कमल कैरवादि पुष्पों से एक दूसरे के अंगों को सहलाते हैं।रसनिमीलित नेत्रों से एक दूसरे पर जल वर्षा करते हैं।जल में स्वर्ण रंग के पदम् एवं कलियाँ आदि शोभित हैं जो स्वयं के अहोभाग मनाती युगल को हर्षा रही हैं।

श्रीयुगल रसवार्ता करते एक दूसरे के रसपगे अंग प्रत्यंगों का नयनाभिराम मार्जन कर रहे हैं तभी श्यामा जु की अंगकांति से एक एक कर उनकी अंतरंग कायव्युरूप सखियाँ रति बन थिरक उठतीं हैं।दरअसल श्यामा जु इतनी सुकोमल हैं कि वे अपने जिन भावों को उजागर नहीं होने दे पा रहीं वो सखीरूप उनकी सहचरीभावापन सेविकाएँ चिन्हित करती हैं।अति भोली श्यामा जु पूर्णकाम श्यामसुंदर जु की भुजाओं में बंधी हुई भी खुद को समेटे हुए हैं पर प्रियतम श्यामसुंदर जु को रस प्रदान करने हेतु सखियों को ही इन रतिचिन्हों के रूप में मुग्ध श्यामा जु को बहाना होता है।

सखी इसी भाव से ही अलंकारहीन  सुंदर सलोनी श्यामा जु का स्वयं रसश्रृंगार आरम्भ करती है जिसे महसूस कर श्यामा जु श्यामसुंदर से बताती हैं कि कैसे ये सखी रूप कामिनियाँ श्यामा जु को रसविलास हेतु भावरस में सजाती हैं।

क्रमशः
जयजय श्रीयुगल  !
जयजय वृंदावन  !!

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