श्री राधा
मैं क्या दूँ
मैं क्या दूँ ....। इस जिज्ञासा पर अभी तक हमनें दो स्थितियों पर वार्ता की । आज इस भाव की तृतीय अवस्था पर हमें बात कहनी है ॥ पूर्व वार्ता में कहा गया कि श्री भगवान में ममत्व की उपलब्धि होने पर जीव उनके चरणों पर सर्वस्व न्योछावर करने को व्याकुल हो उठता है ॥ प्रियतम को सर्वस्व अर्पित होने के पश्चात अब प्रियतम का मन प्रियतम का हृदय प्रियतम की कामना प्रेमी का मन हृदय और कामना हो जाती है ॥इस स्थिती पर प्रेमास्पद का हृदय अनुभव होने लगता है ॥ प्रेमास्पद से अभिन्नता प्राप्त होने पर ही उनका सुख क्या है किसमें है यह अनुभूत हो पाता है ॥ बिना प्रियतम से अभेद हुये उनके सुख को जाना नहीं जा सकता ॥ इस स्थिती से पहले हम अपनी कल्पना से अपने अनुरूप उनके सुख का चिंतन करते हैं परंतु वे क्या चाहते ये हमें नहीं अनुभव ॥।वे इतने प्रेमिल इतने उदार हैं कि निज निज मति भाव अनुरूप जो सेवा की जाती जो उन्हें अर्पण किया जाता सब अति प्रेम से स्वीकार करते वे ॥ परंतु उनका सुख क्या ये चिंतन केवल प्रेमी का विषय होता है ॥ यहाँ अब अपनी इच्छा से नहीं देना वरन वह देना है जो वे चाहते ॥ और उनकी लालसा उनकी कामना उन्हें कहनी नहीं पडती वरन प्रेमी के उनसे एकाकार हो चुके हृदय में स्वतः प्रकट रहती है ॥ जिस प्रकार सामान्य संसारी जीव अपने मन के आधीन होकर कर्म करता है अर्थात् अपनी इच्छानुसार वैसै ही प्रेमी प्रियतम के मन को ही अनुभव कर तद्अनुकूल व्यवहार करता है ॥अब प्रेमी का क्षण क्षण केवल प्रियतम सुखार्थ नित नव रस संयोजन करने में ही निमग्न रहता है ॥देना ही है यहाँ परंतु जिसे दे रहे उसकी इच्छानुरूप देना होता है ॥ मैं क्या दूँ यह प्रश्न यहाँ कभी उत्पन्न नहीं होता क्योंकि क्या दें ये स्वयं प्रियतम का हृदय ही प्रेमी को बताता रहता ॥ प्रियतम की इच्छा अनुरूप सुखदान की प्रतिपल नवीन लालसायें प्रेमी का मार्ग दर्शन स्वयं ही करतीं हैं ॥ प्यारे के मन से परे कोई कामना हृदय में आती ही नहीं ॥ इसे एक सामान्य दृष्टांत से समझ सकते हैं कि किसी आत्मीय स्वजन के लिये अति प्रेम से बनाये स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ गये परंतु यदि वह स्वजन किसी कारण वह ग्रहण करने से अस्वीकार करता है तब भी हम उसकी इच्छा के विपरीत चाहते कि वह कुछ न कुछ अवश्य ग्रहण कर ले क्योंकि हमनें बडे प्रेम से बनाया है ॥ यहाँ प्रिय की इच्छा न होते हुये भी सुख ग्रहण करने का आग्रह प्रेम नहीं है । वरन सूक्ष्म अंश में स्व की ही पूर्ति है ॥ प्रियतम की कामनानुरूप सेवा करना ही प्रेम का परम शुद्धतम स्वरूप है ॥ प्रियतम के हृदयानुसार सुख देने सेवा करने से प्रेमी और फलस्वरूप प्रियतम को सुखी पाकर प्रेमी को अपार सुख होता परंतु यह निज सुख उसका अभीष्ट नहीं होता अतः वह इसका भी त्याग करता चलता है ॥ यह विशुद्ध प्रेम वास्तव में है किसका निज स्वभाव तथा किस प्रकार यह प्रियतम के हृदय को नव नव रस लालसाओं से युक्त रखता है यह कहे बिना तो यह चर्चा पूर्ण होगी ही नहीं परंतु यह हमें अगले भाग में कहना ....॥
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