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सखी री महारस दायी ये , मृदुला जु

सखी री महारस दायी ये प्रेम वियोग

वियोग आहा वियोग .....॥ प्रेम की पराकाष्ठा तक सहज ही पहुंचाने वाला परम वरेण्य है वियोग ॥ संयोग और वियोग प्रेम के दो पात कहे गये हैं पर लागे है कि वियोग अधिक श्रेष्ठ है ॥ कोई कहे कैसै । वियोग तो महा पीड़ादायक न ॥ हां री पर वही पीडा तो प्रेम के सर्वोच्चतम शिखर पर ले जावे ॥ संसार भी प्रेम का अनुभव करता परंतु वह वास्तविक प्रेम नहीं वरन काम है अर्थात् हमारी कामना पूरी हो जावे ॥ प्रत्येक संबंध ही काम जनित है अथवा मोहजनित ॥ संसार में भी प्रिय का वियोग प्राप्त होता है ॥ उस वियोग में इच्छित व्यक्ति या वस्तु का अभाव उत्पन्न होने पर उसे पाने की कामना बढती जाती ॥ दिनोंदिन बढती उसे प्राप्त करने भोगने की इच्छा और इसे ही संसारी ,प्रेम का बढना कहते ॥ परंतु वास्तव में तो यह कामना का प्रगाढ़ होना ही है ॥ इच्छित व्यक्ति या वस्तु के प्राप्त होने पर  भोग होने पर बडा आनन्द मिलता परंतु धीरे धीरे वह आनन्द कम होने लगता क्योंकि वास्तव में आनन्द उस व्यक्ति में नहीं वरन हमारे मन में होता जो एक जगह एकाग्र होने पर अनुभूत होने लगता ॥ वही  व्यक्ति जो सर्वाधिक इच्छित था अप्रिय हो जाता है प्राप्त होने के पश्चात् ॥ परंतु हम तो यहाँ वास्तविक प्रेम और उसके प्राण स्वरूप वियोग तत्व की कर रहे ॥ यह वियोग बडा विचित्र है ॥ ये वियोग तो प्रेम की संजीवनी स्वरूप है ॥ प्रेमास्पद का वियोग होने पर प्रेमास्पद और निकट और निकट होता जाता ॥इतना कि धीरे धीरे प्राणों में ही उतरता जाता है । ऐसा लागे कि प्राण ही हो गया ॥ पर अभी प्रेम पूर्णता पर कहाँ पहुँचा ॥ प्राणों से भी भीतर उतर आत्मा तक पहुँच जाता ॥ लागे कि आत्मा का रोम रोम उसी से बनो है ॥ पर अभी तो यात्रा शेष है ॥वियोग और गहराता , लगने लगता कि आत्मा का रोम रोम उससे नहीं बना वरन वही तो आत्मा का एक एक तन्तु है ॥ उसी से तो बना मेरा संपूर्ण अस्तित्व ॥ वियोग और प्रगाढ़ होता , तो प्रेमी का अस्तित्व ही शून्य हो जाता ,रह जाती तो केवल एकमात्र प्रेमास्पद की सत्ता ॥ प्रेमी विलीन हो जाता अपने प्रेमास्पद में और प्रेमास्पद ही पूरे के पूरे उतर आते वहाँ ॥ तब प्रकट होता रास ॥ हाँ रास यही तो धरा रास की जहाँ केवल श्यामसुन्दर ही श्यामसुन्दर हैं ॥।क्योंकि रास तो केवल श्यामसुन्दर का श्यामसुन्दर से ही संभव है जब तक अन्य तत्व उपस्थित है रास संभव नहीं ॥ इसी हेतु से रासमंडल के मध्य से छिप गये थे ये प्रेम विवर्धनचतुर ॥ प्रेम के अति उच्च स्तर पर अवस्थित गोपांगनाओं को उस चरम तक पहुँचाने हेतु जहाँ केवल उन्हीं (श्यामसुन्दर )की सत्ता शेष रहे ॥  वियोग गहरा होने पर गोपी ,गोपी नहीं रही श्यामसुन्दर हो गयी और लीला रूप वही प्रकट भी होने लगा ॥ लोग इसका कारण भी निज निज भाव अनुरूप खोजते कि गोपियों में मान , अंहकार आदि के उत्पन्न होने पर त्याग दिया श्यामसुन्दर ने रास मध्य ॥ परंतु वह त्याग नहीं वरन प्रेम की पूर्णता का सेतु  था ॥ रास प्रेम की पूर्णता पर घटता है और प्रेम की पूर्णता स्वयं श्यामसुन्दर हैं तो वही जब पूरे उतर आते प्रेमी हो तब रसास्वादन होता समान रूप से ॥तो यह वियोग ही परम श्रेष्ठ परम प्रेष्ठ है अपना ॥ जयजय श्री श्यामाश्याम जी ।।

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