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ब्रज भाव रस रहस्य , मृदुला जु

श्री राधा

ब्रज भाव रस रहस्य

समस्त सृष्टि के लिये ब्रज लीलायें एक रहस्य हैं कि यहाँ जैसा स्वरूप भगवान का प्रकट है वैसा अन्यत्र नहीं । यहाँ वो पर ब्रह्म परम ईश्वर सर्वलोक महेश्वर कभी मैया के आंगन की कीचड में लोटते हैं तो कभी समस्त सखाओं को चोरी का पाठ पढाते हुये माखन चुराते हैं तो कभी मैया की छडी के भय से थर थर कांपते हुये अश्रु पात करते हैं ॥ क्या स्वरूप है इन परम विचित्र जगत से परे रसमयी लीलाओं का ॥ ये रस रहस्य समझने के लिये हमें श्री भगवान के निज हृदय में उतरना पडेगा ॥।वास्तव में सम्पूर्ण ब्रज मंडल श्री भगवान का निज हृदय ही है और समस्त ब्रज वासी चाहें बाहरी रूप जड दीखें या चेतन स्थावर दीखें या जंगम सब के सब भगवान के ह्रदय की अनन्त प्रेम वृत्तियाँ ही हैं ॥।अर्थात् उन्हीं की निज स्वरूभूता आह्लादिनी शक्ति की अनन्त अनन्त तरंगे जो उनके सुखार्थ उनके साथ खेल रहीं हैं ॥ इसे एक उदाहरण से समझने की चेष्टा करें कि जैसै मान लीजिये कन्हाई मध्य में अवस्थित हैं और उनके चारों ओर अनन्त छोटे बडे दर्पण लगे हैं जिनमें कन्हाई के हृदय के अनन्त प्रेम भावों के प्रतिबिंब उजागर हैं और कन्हाई निज हृदय के ही उन अनन्त भाव प्रतिबिंबों के साथ खेल रहे हैं ॥ या यूँ कह लीजिये कि श्री कृष्ण ह्रदय भाव सिंधु की अनन्त अनन्त भाव तरंग मालाएँ  मूर्तिवंत हों उनके चहुँओर नाच रहीं हों  और उन्हीं के रस से उनका रसार्चन कर रहीं हों ॥ वे निज ह्रदय भाव वृत्तियों का ही रसास्वादन कर रहे हैं ॥।वास्तव में सम्पूर्ण ब्रज लीलायें उन का निज रस रसास्वादन ही है । और इसी रसास्वादन के कारण वे रसिक शेखर हैं ॥ मैया बाबा दाऊ दादा समस्त सखागण समस्त गोपियाँ ग्वाल गायें वत्स समस्त जलचर थलचर नभचर समस्त तरु गण पल्लव पुष्प अर्थात सब कुछ उन्हीं की प्रेम वृत्तियों के साकार मूर्तिवंत रूप हैं ॥ जो भीतर है वहीं बाहर मूर्तिवंत भी हैं । पर ये क्यों बाहर हैं !तो इसका कारण है श्री भगवान का रसिक शेखर स्वरूप । रसौ वै सः , रस तो हैं ही वे पर रसिक भी हैं तो रस पान करने हेतु ही ये समस्त ह्रदय रस उनका मूर्तिवंत होकर रसपान करा रहा उन्हें ही ॥ बिना जाने ही  संसार न जाने क्या क्या कहता उन्हें रसिया रसिक रसिकशिरोमणि ,ये सब परम सत्य परंतु ये तो जानिये वे रस पान कर किसका रहे हैं , स्वयं अपना ही ॥ जैसै हम अपने सौंदर्य का रस दर्पण सन्मुख हो स्वयं लेते हैं स्वयं पर मुग्ध होते हैं वैसै ही वे निज रस रसास्वादन कर रहे हैं निज भाव प्रतिमाओं के माध्यम से । ये भाव प्रतिमाएँ उन्हीं की चित्त वृत्तियाँ हैं ॥ तो किशोरी क्या हैं ॥ जैसा ऊपर कहा कि मान लो अनन्त छोटे बडे दर्पण है जो एक एक प्रेम तरंग को दर्शाता है तो किशोरी  वह दर्पण है जिसमें श्यामसुन्दर का संपूर्णतम प्रतिबिंब स्पष्ट है या यूँ कहिये कि अनन्त भाव तरंगों को समेटे संपूर्णतम् भाव सिंधु मूर्तिवंत है ॥ या यूँ कहिये की समस्त प्रेममयी भावनाओं का मूल मूर्तिवंत है ॥ या यूँ कहिये कि जिस आह्लादिनी की ये रस प्रतिमाएँ हैं वो आह्लादिनी अपनी संपूर्णता के साथ लीलायमान है ॥।जिस आह्लादिनी के कारण श्री कृष्ण रसराज हैं वह उन्हें उनका ही रसपान कराने हित मूर्तिवंत हो बाहर भी प्रकट हैं ॥ निज रस अवगाहन ही ब्रज लीला है श्री भगवान की ॥।योगमाया के प्रभाव से बस ये जानते नहीं हमारे श्यामसुन्दर कि ये उन्हीं का स्वरस है और इसी में रस की निष्पत्ति संभव भी होती है । सो आत्मरस पर ही मुग्ध मोहित हुये रस सिंधु में डूबकर रसपान करते रहते वे रसिक सिरमौर हमारे परम प्रियतम प्राण वल्लभ कन्हाई ॥।

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