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श्यामसुन्दर ... , मृदुला जी

श्री राधा

श्यामसुन्दर आहा .......श्यामसुन्दर ॥कैसे होते होंगे न हमारे श्यामसुन्दर ॥।प्रेम रस के साकार विग्रह हमारे प्रियतम ॥सब कहते हैं गोपियों के श्री प्रिया के पूर्णतम आधीन हैं वे । तो किस रस के आधीन हैं वे । क्या जीव के समान रूप सौन्दर्य गुण कला आदि से बंधते हैं वे  ॥ ना री उनका तो कहना ही क्या ॥तो क्या देखें हैं उनके विशाल कमल दल लोचन कि भ्रमर बन श्री प्रिया के मुख कमल मकरंद का अनवरत  पान करते नहीं अघाते ॥ क्या सुनें हैं वा के कर्ण पटु कि कछु और सुनाई ही ना देवे वा को  ॥क्या सुगंध ग्रहण करे है वा कि नासिका जो  सदा श्यामा की मधुर अंग गंध के आधीन हुयी रहती है और क्या अनुभव करती है उनकी त्वक् जो सदा सदा निज प्रिया के सुकोमल गात का मधुरतम स्पर्श पाने को लालायित रहती है ॥ वास्तव में हमारे परम प्राण वल्लभ श्यामसुन्दर प्रेम की साकार मूर्ति हैं ।  उनके समस्त अंग समस्त इंद्रियाँ उसी दिव्यातीत प्रेम सार तत्व से ही बनीं हैं ॥ अब जिस तत्व से हमारी इंद्रियाँ निर्मित होतीं हैं उसी तत्व को वे ग्रहण भी कर सकती हैं उससे पर को नहीं  ॥ जैसै हमारी देह पांचभौतिक है तो बस पंचभूत तत्वों को ही एक सीमा तक अनुभव कर पाती हैं ॥ मायिक देह से मायमय पदार्थ ही ग्रहण होते न ।  तो हमारे प्यारे श्यामसुन्दर की देह तो दिव्य चिन्मय प्रेम रस सार तत्व से बनो है तो वे वही अनुभव कर पाते । अन्य कछु दिखता ही न वा ने ।  वे देख सकते केवल भाव को प्रेम को सौन्दर्य ॥ संसार में भी कहा जाता कि शरीर से क्या होता है मन सुंदर होना चाहिये । यहाँ हम किसी के सुंदर मन की केवल कल्पना ही कर पाते हैं या अधिक से अधिक उसके मधुर स्वभाव को कुछ मात्रा में मन में अनुभव ही कर पाते हैं लेकिन भाव और प्रेम सुक्ष्म तत्व होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं कर पाते हैं ॥ परंतु श्री प्रिया के दिव्य प्रेम राज्य में एसा नहीं है ॥ वहाँ भाव देह प्रेम देह का ही अस्तित्व है। कहा भी जाता न साधन पथ में कि भाव देह की प्राप्ति होगी । तो श्री किशोरी के परम अनुग्रह से ही प्रेम देह रस देह भाव देह प्राप्त हो वास मिलता दिव्य वृंदावन में ॥। हम तो बात यहाँ प्रियतम की कर रहे हैं ॥ श्री प्रिया जू की देह परम चिन्मय रस पूर्णतम प्रेम के परम सार रस का ही मूर्तिवान स्वरूप है ॥ उनका रूप पांचभौतिक नहीं प्रेम के माधुर्य का सार है । अंग सुगंध प्रेम का गंध स्वरूप है मधुर वाणी भी प्रेम का शब्द स्वरूप है ॥ मधुरतम परम सुशीतल स्पर्श भी प्रेम का अकथनीय माधुर्य है ॥।प्रेम स्वयं में ही इतना मधुर है और उस पर भी यदि वह सार रूप हो पूर्णतम हो और विग्रह धारण कर ले तो ......॥।जीव जगत के समान स्थिती नहीं है वहाँ कि भाव को प्रेम को मात्र हृदय में धारण कर पाते देह में नहीं  । यहाँ तो प्रेम दृश्य नहीं है वरन  वाणी से जताना पडता बारम्बार कि मोहे प्रेम तुमसे या कुछ क्रियाओं से भाव भंगिमाओं से कुछ सीमा तक प्रदर्शित कर पाते परंतु वहाँ प्रेम ही देह तो कहने की आवश्यकता ही नहीं  ॥ जिसमें जितना अधिक भाव जितना अधिक प्रेम उतना अधिक उसका रूप सौन्दर्य ॥रोम रोम से स्वतः प्रेम का माधुर्य झलकता रहता ॥ तो प्यारे श्यामसुन्दर के नेत्र जिस रूपराशि के आधीन वो तो श्री प्रिया का सौन्दर्य है अर्थात पूर्ण प्रेम का सौन्दर्य ॥।श्याम के नेत्र प्रेम ही देख पाते तो स्वथा पराधीन उस सर्वोच्चतम रूप राशि के ॥।जो जितना भावमय उतना ही सुंदर दिखता कन्हाई को ॥। जो जितनी भावमयी उसकी अधरसुधा उतनी ही मीठी प्राप्त होती उन्हें , यहाँ मीठी अर्थात् मधुरता कोई काल्पनिक वस्तु नहीं वरन वास्तव में मधुर होता अधररस शहद से भी अधिक मधुर ॥।तो किशोरी की अधरसुधा से मधुर किसका अधररस होगा तभी तो वे रस लोभी सदा लालयित इस रस के ॥ जो जितनी भावमय उसका स्पर्श उतना कोमल शीतल और मधुर मिलता प्रियतम को तो किशोरी जैसी कौन भला ॥ भाव ही वाणी बन प्रवेश करता कर्ण रन्ध्रों मे प्रियतम के । तो वस्तुतः सार यह है कि मात्र प्रेम ही इन्द्रियगम्य है प्यारे श्यामसुन्दर के अन्य तत्व नहीं

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