श्री राधा
रस और प्यास
रस ही प्यास है और प्यास ही रस ॥कितना विचित्र प्रतीत होता है न । रस और प्यास एक कैसै । जगत में सदा दै्वत ही चहुंओर परन्तु श्री युगल के प्रेम राज्य में दै्वत कुछ होता ही नहीं ॥ जगत में प्यास अलग तत्व है और जल अलग वस्तु ॥ प्यास होने पर जल पी लिया जाता और तृप्ति हो जाती परन्तु श्यामसुन्दर के लिये रस ही प्यास है तो उनका रस कौन ॥ उनका रस तो श्री प्रिया ही हैं न तो वही तो उनके नेत्रों में प्राणों में हृदय में रोम रोम में प्यास बनकर भी समायी हैं । यह कोई काल्पनिक बात नहीं वरन परम सत्य है । स्वयं श्यामा ही नेत्रों से प्यास रूप दृष्टि बनकर प्रियतम नयनों से झलकती हैं और वही रस रूप दृश्य भी हैं ॥ बडी अदभुत स्थिती है यदि गहनता से अनुभूत की जावे तो ॥ भीतर प्यास वही बाहर रस तो रस जब भीतर उतरे तो प्यास ही वर्धित होवे न भीतर ॥ दोनों स्थितियाँ ही नित्य अतृप्त ॥ तत्व ही स्वयं का बोध कर सकता अन्य नहीं तो श्री श्यामसुन्दर में प्यास का अनुभव श्री प्रिया ही कर पाती ॥ शेष तो उनसे रस ही पाते ॥।यही प्रिया रूपी प्यास ही तो नित नव केली उन्मुख करती श्री प्रियतम को ॥ भीतर नव नव तृषा का सृजन करती और बाहर रस सरसातीं ॥ प्रियतम के उर में नित्य नवीन लालसा का उदगम भी यही श्री प्रिया हैं और उन नव लालसाओं की पूर्ति करने वाला कल्पतरु भी वहीं नवल नागरी हैं ॥ यद्यपि लीला रस हेतु दोनों में से कोई यह तथ्य नहीं जानता
( योगमाया जी के आश्रय से ) तभी तो लीला में अनुपम रसानुभूति कर पाते युगल ॥ निज स्वरूप से अनभिज्ञ बने रहना ही तो रस का हेतु है ॥। दोनों ही स्वयं को रसविहिन जानते और परस्पर को रसदाता ॥ दोनों शिशुवत सरल निश्छल और भोले हैं ॥ और इन दो भोले शिशुओं को जिन्हें स्वयं का भी भान नहीं रहता , प्राणवत सहेजने के हित सखिगण सदा तत्पर ॥
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