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सेवा और महाभाव

कभी कभी बिन पढ़े हुए भाव भी शेयर हो जाते है । कुछ बात उनमे मुझे निजता से समझ नही आती , और स्वीकार नही होती ।
जैसे पिछले समय एक लीला झाँकी में दीदी शब्द प्रयुक्त था , जबकि रसिक भावना में नही कभी पढा और निज भाव में भी कभी दीदी या जीजी शब्द भी मैने अब तक नही सुना ।
वहाँ "सखी" यहीँ सम्बन्ध । परन्तु ऐसा मैंने एक भाव शेयर किया । जब लौकिक सम्बन्ध का आभास भी तो रस परिपक्व नही फिर । भावना करना गलत नही परन्तु लिखित भावना जब ही हो जब वह विशुद्ध हो ।
प्रिया जु की सेवा भावना पर बिन पढ़े एक लीला शेयर हुई । जिससे एक रसिक चित्त को पीड़ा हुई और रस पीड़ा के परिणाम में , उनकी रसमयता प्रकाशित हुई ...

श्री  राधा

सेवा ...कितना चिरपरिचित शब्द है ॥ संसार में सभी जानते इसे परंतु इसका वास्तविक अर्थ और स्वरूप क्या है ये प्रेम की गहनता में उतरने पर ही हृदयंगम हो पाता है ॥ संसार में किसी भी यांत्रिक क्रिया को ही सेवा कहा समझा माना जाना जाता है ॥ पर क्या वह सेवा है? संसार में किसी के लिये किये जाने वाले कार्यो के ही सेवा कहते परंतु प्रेम राज्य में ही इसका वास्तविक स्वरूप सदा प्रकट रह पाता ॥ सेवा का अर्थ है सेवास्पद का सुख जो हमारा प्रेमास्पद ही होता है । बस जितना प्रेमास्पद का सुख स्पष्ट होता जायेगा उतना ही सेवा वास्तविक प्रकट होने लगेगी ॥ सेवा के मर्म को केवल श्यामसुंदर ही जानते हैं या फिर श्री प्रिया ॥।और उनके अनुग्रह से समस्त निकुंज परिकर ॥।इसी सेवा स्थिती को तनिक गहनता से विचारें हम अब ॥
चरण चापना सेवा है हमारे लिये क्योंकि हमें लगता कि चरण जिसके चापे जा रहे उन्हें सुख होगा इससे पर यदि उन्हें इससे सुख नहीं तो क्या ये सेवा हुयी ?कदाचित् नहीं । लेकिन हम तो सदा पढते सुनते गाते रसिकों के मुख से कि प्रियतम श्री प्रिया के चरण दबाते तो क्या स्वरूप हुआ ये ! ॥ वास्तविकता ये है कि श्री प्रिया जैसी कोई सेविका त्रिभुवन में संभव ही नहीं  पर संसार इस रहस्य को नहीं जानता ॥ समस्त निकुंज लीलायें वास्तव में श्री प्रिया की सेवालालसा का ही  प्रकट रूप है ॥ एक लीला चिंतन करें कि लाल जू प्रिया जू के चरण दबा रहे हैं । देखने वाले सोचेंगें कि लाल जू प्रिया की सेवा कर रहे हैं पर वास्तविकता यह है कि उस समय  भी श्री प्रिया ही लाल  जू की सेवा में लीन हैं सदा की तरह ॥ बहुत विचित्र प्रतीत होगा  ये परंतु श्री  राधा तत्व अति गहन है सरलता से कैसै हृदयंगम होगा !  श्री राधा तत्व प्रेम तत्व सेवा तत्व त्याग तत्व समर्पण तत्व सब एक ही तत्व के भिन्न नाम हैं ॥ एक के उजागर होने पर बाकी सब स्वतः प्रकाशित हो जाते हैं ॥ तो कहा गया कि श्री राधा जू ही सेवा कर रहीं हैं पर कैसै ....॥लाल जू के मन में किशोरी चरण चापने की इच्छा का उदय हुआ है तो प्यारी जू के लिये बस यही सेवा आदेश है , ये न समझा जावे कि लाल जू ने कोई आदेश किया प्रिया को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष , वरन प्रियतम की सेवा प्रिया का स्वरूपतः तत्व है ॥ तो लाल जू की इच्छा ही प्रिया का स्वरूप तो लाल जू कि चरण चापने की इच्छा पूर्ण करना ही है उन्हें ॥ इसके लिये चाहें वे स्पष्ट आदेश कर देवें लाल जू को कि नेक से चरण दबा दो ( भीतर कि इनकी इच्छा पूरी हो )॥ अब जब लाल जू चरण दबा रहें हैं और परम आनन्द में डूब रहें हैं तो सोचिये कि किसकी  इच्छा पूरी हुयी और कौन सुख पा रहे हैं....प्रियतम न ॥। तो सेवा किसकी हुयी और कौन कर रहा है ॥ चाहें  जो भी लीला हो केवल श्यामसुन्दर के सुखार्थ ही करतीं लाडली जू तो लाडली ही एकमात्र सेविका । बाहरी रूप लीला चाहे जो दिखे ॥

सेवा का स्वरूप ही वह , श्री श्रयते इति श्री । श्रय देवे , अर्थात सेवा देवे वही श्री । श्रय कौन देगा ,  जिसके पास है । सेवा ही माधुर्य का साकार स्वरूप । सेवा स्वरूप ही किशोरी जु का है ।
और नाम मात्र या भावना मात्र से महाभाव का प्रभाव जब संसार में कभी विकार में रहे चित्त पर हो सकता तो , विचार कीजिये । प्रेम के तृषित श्यामसुन्दर पर कितना गहरा होगा । श्यामसुन्दर की प्रत्येक अभिव्यक्ति उनकी महाभाव अनुभूति की महक ही है । महाभाव अर्थात राधा । राधा अर्थात भावना की पराकाष्ठा । महाभाव की इतनी महकती भावना वहाँ बिखरी हुई कि सभी को निज भावना लगती है । है महाभाव । और किशोरी जु से प्रस्फुरित महाभाव की महक से होती हर केलि में किशोरी जु अति सहज ही रहती । जैसे पुष्प से प्राप्त शहद , पुष्प की ही सेवा में प्रस्तुत हो । पुष्प को पता भी न हो कि यह उस का निज सार । वैसे ही महाभाविनी के उस दिव्य सँग में स्वतः महाभाव ही क्रियमान रहता है । निज मन महाभावित हो जैसा तत्क्षण किशोरी जु करती वैसा ही श्यामसुन्दर और सखी परिकर के भीतर भाव स्फुरण रहता है ।

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