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श्रीकृष्ण रसिया रसिक रसिकशेखर .... मृदुला जु

श्री राधा

श्रीकृष्ण रसिया रसिक रसिकशेखर ............

जीव कितना अभिमानी कितना मोह में निमग्न कितना जड मति ॥ जीव जगत में जो कुछ भी मूर्त अमूर्त तत्व विद्धमान में वो समस्त श्रीकृष्ण की ही अनन्त सत्ता से प्रकाशित हो रहा है ॥ जीव के पास स्व कहने को है ही क्या यदि सूक्ष्मता से चिंतन करें तो पायेंगे कि जो कुछ भी प्राप्त है उसे वह सब श्रीकृष्ण के ही अनन्त सिंधु के सीकर का प्रसाद है । रूप सौन्दर्य समस्त गुण कलायें विद्या चिन्तन शक्ति कर्म शक्ति एश्वर्य यहाँ तक की भक्ति और प्रेम भी जिसे पाकर वह भक्त और प्रेमी कहलाता है वह भक्ति तत्व भी उन्हीं की निज वस्तु है ॥ शरीर की तो बात ही क्या सूक्ष्म तत्व मन बुद्धि चित्त अहंकार सब उन्हीं सर्वेश्वर का कृपा प्रसाद है । जीव की चेतना भी उसी परम चेतना से प्रकाशित होती है ॥। सब कुछ उनका उन्हीं से पाकर उसे स्व मान बैठा ये अहंकारी जीव उनके द्वारा प्रदत्त समस्त संसाधनों का अधिकार पूर्वक उपभोग करता है ॥ स्व तो अणु मात्र भी नहीं इसका वरन ये कहना चाहिये कि ये स्वयं भी खुद का नहीं केवल श्री भगवान की वस्तु है ॥ परंतु माया मोहित न जाने किस किस को अपना समझ रहा है ॥ यहाँ तक तो ठीक था पर वही सर्वाधार सर्वमूल श्री कृष्ण जब अपनी ही निज स्वरूप शक्ति का आनन्द लेवें तो वह परस्त्रीगामी , चोर ,रसिया और न जाने कैसी कैसी उपाधियों से विभूषित किये जाते हैं । चोर तो जीव है वे नहीं ॥।उनके लिये पर नामक कोई वस्तु अस्तित्व ही नहीं रखती ॥ समस्त चराचर स्व है उनका ॥ वे तो इतने प्रेममय हैं कि हमारे अपराध उनकी प्रेममयी दृष्टि में आते ही नहीं ॥ परंतु पीड़ा होती है उनके भावुक जनो को और क्यों न हो संसार में आप किसी के अति प्रिय जन के विषय में नेक सो विपरीत कहकर तो देखिये जो न हो जावे वो थोडा है ॥ अपने माता पिता या संतान के बारे में विपरीत सुनते ही कितनी पीड़ा होती हमें तो श्रीकृष्ण के बारे में विपरीत सुनने पर पीड़ा क्यों नहीं होती ॥।इसलिए नहीं होती कि अभी तक अपना जाना जो नहीं उन्हे ॥ पर लगते न अभी स्व नहीं  ॥ बडे बडे कथावाचक कुछ लीलाओं को कहते लजाते ॥ उन परम गहन लीलाओं का ऐसा चित्रण करते कि जैसै श्री कृष्ण लीला की सफाई दे रहे हों ॥ ऐसी ही एक सर्वप्रसिद्ध लीला है चीरहरण लीला ॥ एक परम प्रसिद्ध कथावाचक जो राष्ट्रीय संत की उपाधि से विभूषित हैं कह रहे कि अरे श्री कृष्ण तो मात्र सात वर्ष के थे उस समय, इतना छोटा बालक गोपियों के भारी भारी वस्त्र लेकर पेड पर कैसै चढ सकता है ? ऐसा लगता है कि आप उनके द्वारा किये किसी गलत कार्य पर परदा डाल रहे हों ॥ अरे अभी तो आपकी ही दृष्टि निर्मल नहीं हुयी तो समाज को कैसै दिखलायेंगें लीला की गहन निर्मलता ॥ वह दृष्टि प्राप्त नहीं है तो स्वाध्याय कीजिये श्री कृष्ण के स्वजनों की वाणी का ॥ जानने का प्रयास तो कीजिये कि क्या स्वरूप है ऐसी लीलाओं का । वहाँ सब प्रकट है ॥ आपको सब सुनते हैं अतः ऐसे रहस्य उदघाटित करना आपका दायित्व है । छिपाते क्यों हैं छिपातें हैं तभी लोग सोचते अवश्य कुछ अवांछनीय होगा कुछ अनैतिक होगा ॥ क्यों नहीं कहते वास्तविक तत्व ॥। भोले भाले लोग समझते कि आप बडे प्रेमी पर यदि आप प्रेमी होते तो क्या परम प्राण सर्वस्व पर आक्षेप सह पाते ॥।एक प्रसिद्ध कथा वाचक कहे गोपी गीत में अधरामृत के लिये कि जो धरा का अमृत नहीं , अर्थात् श्रीकृष्ण अधर सुधा जो गोपियों की जीवन निधि है वह उसी स्वरूप में कहने में आपको लाज क्यों ??   क्यों नहीं बताते कि कोटि कोटि अमृत विनिन्दक श्यामसुन्दर की अधर सुधा मांग रहीं हैं गोपीजन ॥ क्यों नहीं जगाते उस सुधा को पाने का लोभ जीवों में ॥ उसमें ज्ञान तत्व को दर्शाकर गोपियों का अपराध नहीं कर रहे आप ??  अभी आपकी दृष्टि में भोग है वह और वे भोगी तभी छिपाने का प्रयास करते ॥ परंतु परम त्याग की लीलायें हैं समस्त ब्रज लीलायें चाहें कोई सी भी क्यों न हो । ऐसा नहीं कि कुछ कहने योग्य और कुछ छिपाने जैसी ॥ अपने रूप को दर्पण में निरख भोगी हो जाते क्या आप नहीं न तो वे जिनकी सत्ता से समस्त अस्तित्व प्रकाशित है वे भोगी किस प्रकार ॥।तत्व तो अभी और गहन है कि स्वरस पान भी वास्तव में स्वहेतु नहीं परंतु वह फिर कभी  , अभी श्री किशोरी चरणन में इस विनीत विनती के साथ वार्ता को विश्राम देंवें कि वे ही परम अनुग्रह कर हमारे माया आवरण को हटा निज प्रियतम का पावन प्रेम प्रकाश करें हमारें हृदयों में ॥।

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