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चन्द्र हिंडोला लीला भाव , संगीनी जु

सखी आज एक अपने निकुंज द्वार पर बैठी श्रीयुगल जु की बाट जोह रही है।तनिक विलम्ब से उसकी विरह दशा कुछ गहरा रही है।प्रियालाल जु आते होंगे यह जान सखी खुद को संवरित रखती सम्पूर्ण निकुंज को पुष्पों की लड़ियों व बंदनवारों से सजा चुकी और सुमन सेज पर भी अत्यंत मधुर व सुगंधित पुष्पों व लताओं की झालरें बिछा चुकी।राह तकते उसके नयन विचलित तनप्राणों की झांकी स्पष्ट दिखा रहे हैं।व्याकुल चित्त से सखी द्वार पर दिये प्रज्वलित करने लगती है।विलक्षणता यह कि जैसे ही सखी पहला दिया रखती है श्रीप्रिया चरण प्रकाशित होते हैं और सखी अश्रुपूरित नयनों से श्यामा जु के सरस चरणों का प्रक्षालण करती तनिक उनकी अद्भुत सुंदर मुस्कान का दर्शन करती है और दूसरा दिया पहले के समीप ही रखती है।तत्क्षण उसके तृषित नयनों के दृष्टिपथ में प्रियतम श्यामसुंदर जु के चरणकमल प्रकाशित हो उठते हैं।प्रियतम चरणकमलों को नयनजल से पखारती उनकी मधुरिम चंचल मुखकांति का दरस पाती है।आनंदस्कित पगली अब एक के बाद एक दिया रखती जाती है और उसके समक्ष उतनी बार प्रियालाल जु की नयनाभिराम झाँकी उभरती जाती है।पूरी चार दिवारी जगमगा उठी है और सखी के नेत्रकोरों से अश्रु झलमलाते श्रीयुगल को निहारते नहीं अघाते।पर ना जाने पगली को क्या सूझी एक एक कर सब दिये हटाने लगी।अंत में जब केवल दो ही दिये बचे तो उठ कर श्यामा श्यामसुंदर जु के सुकोमलतम करों को अपने कर से थाम भीतर पधराती है।उनकी अति मधुरता भरी रस झाँकी को निहारती हुई श्यामा श्यामसुंदर जु की परस्पर निहारन पर बलि बलि जाती सखी निकुंज द्वार पर से दो में से एक दीपक और हटा देती है और वहीं बैठ उस एक दिये की झिलमिलाती रसस्कित लौ को निहारने लगती है।दीपक की बाहरी पीतरंग झलमलान में प्रियतम श्यामसुंदर नीलरंग  श्रृंगारित श्यामा जु को आगोश में लिए हुए हैं और मध्य में लालरंग में प्रेमरसरंग सुगमता से बहता अनवरत छूट चुका है किसी झरने के समान।कुछ ही पलों में पीतवर्णा श्यामा जु रोम रोम में भर चुके नीलवर्ण श्यामसुंदर जु को रसमग्न कर भीतर सहेज चुकी हैं और दीपक की पूरी झिलमिलाहट पीतरंग होकर एकदम शांत एकरस हो चुकी है और दीपक की नीलरंग कांति भ्रमर समान कमलिनी में आत्मसात् होती समाती जा रही है।

जय जय श्रीयुगल सरकार जु की !!

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वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

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