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आगमन लीला , संगीनी जु

आगमन लीला ...

दूर नीले आकाश तले नीलवर्ण श्यामसुंदर जु की वंशी ध्वनि सुन एक सखी घर के द्वार खोल बीच राह खड़ी एकटक पगडंडी पर निहार रही है कि वंशी की मधुर ध्वनि संग प्रियतम श्यामसुंदर जु भी आते होंगे।जैसे जैसे नज़र टिकाए यह सखी देख रही है नीला आसमान घिरता आ रहा है और श्याम घन की घटा छा रही है जैसे गायों के चलने से धूल धूसरित नीलरंग स्याम हो रहा।गायों के कंठों में लटकती घंटियों किंकणियों की मधुर ध्वनियाँ कर्णपुटों को छूती स्पंदन भर रही हैं और वहीं वंशी ध्वनि तो भीतर नाद का गहन रूप ले चुकी है कि बिन देखे ही सखी नीली छवि से मंत्रमुग्ध खड़ी की खड़ी रह गई है।उसके नेत्र तन मन प्राण सब स्थिर हैं।आसपास का कोई होश नहीं बस केवल रस घुलता जा रहा उसके अंतर्मन की धमनियों में तीव्रता से।प्रियतम श्यामसुंदर अभी दृष्टिगोचर हुए ही कि सखी तो जैसे मात्र झलक पाते ही लीन स्माधिस्थ हो चुकी।नीलसुंदर मंद मुस्काते वंशी बजाते आभूषित नंगे पग नूपुरों कटिबंध गलमाल भुजबंध से मधुर पवन सम महकते लचकते खनकते सखाओं व गायों संग आगे बढ़ रहे हैं।पर सखी को तो श्यामसुंदर के सिवाय कुछ नज़र नहीं आ रहा ना वंशी ध्वनि के बिना कुछ सुनाई ही दे रहा है।बीच बीच में उनके नयनों व आभुषणों की दमक है जो सखी के नेत्रों में दामिनी सम कौंधती भीतर समा रही है जैसे उसे श्याम संग श्यामा जु रसमग्न करतीं जा रहीं हैं।नीलसुंदर बस उसे निहारते मुस्काते आगे बढ़ रहे हैं और उसी की तरफ आ रहे हैं।सखी तन्मयता से राह पर खड़ी की खड़ी रह जाती है कि श्यामसुंदर उसके समक्ष आ खड़े हुए।जाने कहाँ खोई है कि यह समक्ष खड़े श्यामसुंदर जु को ना निहारती हुई अपने अंतर्मन में उतर चुकी उनकी छवि में ही तल्लीन हुई वंशी नाद में डूबी खड़ी है।टस से मस ना हुई और श्यामसुंदर एक कर से वंशी थामे अधरों से रस घोलते दूसरे कर से सखी के टकटकी लगाए नेत्रों को धीरे से ढंकते हुए बंद कर देते हैं।कठपुतली बनी खड़ी सखी नयन मूंद भी उसी नीलछब में मुग्ध सी ध्यान अटकाए खड़ी है।पास ही कदम्ब तले श्यामसुंदर वंशी को अधरों से लगाए उसके छिद्रों को मधुस्कित अपनी अंगुलियों का स्पर्श देते मधुर रस घोल रहे हैं और यहाँ यह सखी जैसे प्रियतम श्यामसुंदर वंशी को नहीं उसके तन मन प्राणों से होते हुए रगों में मधुर नाद से नख से शिख तक छूते रस घोल रहे हैं और इसके हृदय में प्रवेश करते इसे खुद में भर चुके हैं।देह की सुधि भूल वंशी के गहनतम नाद से स्पंदित सखी स्वयं वंशी ही हो चुकी है और नीलसुंदर के करों में उनकी अंगुलियों व अधरों के स्पर्श से सम्पूर्ण रसरूप।

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