Skip to main content

धनुष और बाँसुरी

हर गेहूँ के दाने से पहले उसकी सुरक्षा के लिए बहुत से आवरण रूपी रक्षात्मक शूल बहुत बारीक़ लगता है क्यूँ ?
ब्रह्म जीव् से पहले उसकी सुरक्षा रचते है ।
राम ब्रह्म है जीव की सुरक्षात्मक भाव से बाल छवि भी धनुषमय है । सुरक्षा ही धनुष है ।
राम कभी भी जीव के रक्षत्व से मुक्त नहीँ ।
राम सूर्य रूपी है । कृष्ण चन्द्र रूपी ।
जीव की रक्षा का भाव , एक आवरण ।
कृष्ण प्रेम रूप है । जीव का मूल प्रेम है । सो माधुर्य रूपी बांसुरी ।  कृष्ण प्रेम से जीव को आभाषित कराने हेतु है । प्रेम उनकी शक्ति है । चन्द्र का आवरण प्रेम हेतु है नित्य । सूर्य का निष्काम कर्म ।
पदार्थ की सुरक्षा से पहले सुरक्षा राम से समझ आता है ।
सीताराम ... पदार्थ का , प्रकृति के किसी भी रूप का मर्यादित अनिवार्य उपभोग होना , आवश्यकता अनुरूप न कि ईच्छा अनुरूप । राम ईश्वर के जगत के आवरण , संरचना , तत्व को कहते रूप है । ऐश्वर्य और वैराग्य की मर्यादा को परिभाषित करते हुए । धर्म का मर्म राम है । मर्यादा का पूर्ण निर्वह राम है । मर्यादा अर्थात् धर्म । सत्य का स्वरूप देखना हो तो वो स्वरूप राम है । बिना सत्य माधुर्य भी न होगा । सत्य ही भागवत् पथ का प्रारम्भ है । भागवत सत्यम् परम् धीमहि से प्रारम्भ होती है । जीवन में सत्य नहीँ , राम नहीँ तो प्रेमरस भी न उतरेगा । सत्य की पराकाष्ठा प्रेम है ।
राधा कृष्ण .... प्रेमानन्द का स्वरूप । आनन्द सभी को चाहिए प्रेम मय विशुद्ध रस आनन्द ही राधाकृष्ण है ।
कृष्ण ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है । जो ईश्वर के भीतर का उन्माद - प्रेम है वो कृष्ण हो कर ही वें स्वयं रस पिए भी पिलाये भी । ईश्वर  का वो स्वरूप जो स्वयं रस पीते भी है , पिलाते भी है । प्रेम के बाद कोई मार्ग नहीँ । कोई आवश्यकता नहीँ । कोई विधि नही। राम के भीतर का उन्माद कृष्ण है । सत्यजीत तृषित ।

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात