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रा र स सु नि 83

अलं विषयवार्त्तया नरककोटी वीभत्सया

वृथाश्रुति कथाश्रमो वत विभेमि कैवल्यत:

परेशभजनोन्मदा यदि शुकादय: कि तत:

परं तु मम राधिका पद रसे मनो मज्जतु

मत विभिन्न है -- अवस्था गहिरता का भी विषय है ! सर्व धर्मान् परितज्य कहना सरल है ... यहाँ एक आस में सब का विन्यास सार्थक है ! परम् रसिक मत है ... परम् गुप्त गोपनिय रसिक रस ग्रन्थ से ...

कोटी नरकों जैसी वीभत्स विषय वार्ता तो दूर रही , श्रुति कथा भी मेरे लिए व्यर्थ श्रम है | तुम्हें यह सुनकर आश्चर्य होगा कि मुझे कैवल्य से भी भय लगता है | परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के भजन में उन्मत्त शुकादिक भक्तगण से भी मेरा क्या प्रयोजन ? मैं तो मात्र यही चाहता हूँ कि मेरा मन केवल श्री राधा चरण कमलों के रस में ही मग्न रहे |
( श्री रा. र. सु. नि. ८३ )

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