पग से लिपटी रहूँ श्यामा जु संग
झांझर का नुपुर बन संग नाचती रहेय
नित प्रति प्रेम केलि विलास रमण करेय
सखियन के सेवा रस को शीश धरेय
श्री जी सामीप्य सानिध्य रस में प्रीतरस में कलकल भये
कछु भाव सेवा से युगल अधरन पर मुसुकानी होय
ऐसो आशिष सखीयन कुँजन को पावत रहेय
पिया न आवे जब तक मानस करवो भरनो है
प्यास हिय न बुझे तृषित ही रहणो है
मुख माधुरी निहारत ही अमृत रस पीनो है
तृषित का होवे सारो जग पूछत डोले
नारी से आज पूछ ल्यो जल चन्द पे काहे ढोले
पतितन को पति जो पावे
एकहु दिन न चरु भर खावे
हिय पीर नित नव दरस प्यासी
बाट निहारत सुहागन भई सन्यासी
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