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भाव वार्ता अंश

युगल सरकार ।।।
श्री श्यामाश्याम के मिलन से जो सार उत्प्नन होता है वो प्रेम और करुणा का सम्मिश्रण है । प्रेम करुणा से ही जगत नियोजित है और चलायमान है ।

वही ऐश्वर्य भाव में कृष्ण और लक्ष्मी का ऐश्वर्य भाव मिले तो प्रद्युम्न उत्प्नन होगा जो की काम का रूप है । चूँकि ये काम विशुद्ध है परन्तु आधार के भेद से काम प्रेम में रूपांतरित न होकर सांसारिक होगा ।।।

अतः भाव रखे युगल के लिए ।
श्री प्रिया जी से मातृ भाव अच्छी बात है । परन्तु वे समानता का ही भाव रखते हुए सखी ही मानती है । और गूढ़ लीलाओ में केवल सखी का ही प्रवेश है । प्रिया जी के लिए पुरुष केवल कृष्ण है । सो साखियॉ ही अब कृष्ण के अतिरिक्त उन्हें छू सकता है

तत्सुख सुनि सब राखत है
माने कोई नाई ...
मैं तो कपटी लम्पट सबन से बडो हूं...
कामना भई काम हुयो .
प्रेम करनो है लेनो भुलाय दियो !
युगल को सुख देवन की सोचत रह्यो.
अपनो सुख भुलावे  से युगल सुख दिखेगो

ईश्वर मानि कर प्रेम करत रहे
तब तो हाथन से कछु न कछु कह देवे है .
बालपन में गुडिया को लाड सांचो कियो सबन ने ..का दी वां ...
कछु ना .
तब न मांग्यो अब काहे मांगत रहे
गुडिया जैसो लाड लाडिली से कर लियो लाडिली जु प्रगट भई जावेगी
अपन बालकन के लिये रातन कारि करि ह्वे . युगल के लिये न होवे ...
सार ते प्रभु ही रहत है  सबन के वां से सांचो जुडो
कुंति मईया कहत रही वाने सबन काज तो संकल्प ते कर सको तबहू काहे आये !
केवल भक्तन को सरुप देन हेत . जासे  मन लग जावे ऐसो रूप धरे है
प्रिया प्रितम देख कोई अंखियन जगत में सुख पावै एसो होवे तो मानि ल्यो देखि न अबहू तक युगल छबि ...
युगल को जो होई ग्यो ! सबन फिको लागे ! रसगुल्लो खाय कोई शक्कर खावे है ?
रसगुल्लो मिठो भी ह्वे . रसिलो भी होय
सांचो जबहू जुडत रहे कबहू किसी जीव ते न लडत भीडत रहे !
सबन के रूप में परीक्षा लेत रहे ...एकह गूढ  भेद कहू ...

संदेह न करियो ... मान लिजो ! रसिकन की वाणी पे संदेह को अरथ है अपनो पतन ! तब पतितपावन भी कछु न करत रहे !
रूप गोसाईं जी कहत है ... मधुरा निकुंज रस में ... प्रेम भाव उपासना में स्व हृदय में न ध्याईये !
युगल को युगल के धाम में देखत रहिये ! स्वयं को वही सखी भाव में पाईये !
युगल को हृदय में बंदि करिबो भी रसिकन को चुभत है !
निकुंज में नाचत जब भावन लागे ! तबहू काहे अपनो सुख हेत हृदय माहे देखे भई ! तनिक स्वारथ बिसार देयो ... कहियो म यो तथ्य ..
रसिक अपराध होयेगो ! रूप मंजरी तो प्रिया जी की निजी ह्वे ! बडो भेद है पिजाओ !छिपाय ल्यो ! तनिक संदेह न करियो !करत देख ल्यो ... बैठ जाओ और भीतर न विचार कुंज - व्रज - निकुंजादि में पाओ ... स्वत: गहरो रस फुट पडेगो ...भीतर देखत देखत सोचन लागे मो में बसत है . मै ही प्रगटाऊ आवे जावे ... मैं कहू छिप जावे ! मैं ही गोविन्द होउ ! ...
मैं जागे है ... अपराध बने है ...
धाम देखत देखत स्व भाव भुलत रहे । भई होवेगे भीतर ! भीतर पावे है प्रभु ने शांत रस के आसामी ... जोग तप करत रहे ! सिद्ध !
प्रेमी न देखत स्व भीतर ... धाम देखत धाम में बसत ! प्रेम हेतु एकहूं भगवन को दोय होनो होवे ! स्व भीतर पाव राहत मिले है ! धाम विचार प्रयास और प्यास फुटे है

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