उसके मन की सुन लोगें
तो सवाल ही नहीं ...
तुम तब भी तुम रहो !!
उसे कुछ नहीं आता ...
दुनिया के रिवाज़ - रस्म !
कोई हद नही उसकी ...
कोई भेद नही ...
यहाँ से देखो ... अज़ीब है वो !
उसका हो कर देखो तो ...
काश फांसले उसे समझ आते ..
कुछ भी नहीं आता !!
तब ही वो सब कुछ है !!
सब कुछ छोड दिजो रोवन ना छोडियो
सब कुछ देय असुवन ना चढाईयो
मांग को करें विवश तो प्रेमअश्रु कहियो
रोय रोय पुकार लें माला छाप भुलाईयो
असुवन जो सुखे भावसागर में डुब मर जाईयो
रोय रोय हँसाती जा
डुब डुब रिझाती जा
पिवत पिवत प्यास बढाती जा
जीवन सुध बुध लुटाती जा
अंग -संग रमाती जा
पल पल पुकारती जा
मनुहार लाड लडाती जा
तब भी ना आवे पी संग प्रिया जो
ऐसे निरथ जीवन को चढाती जा
खुले है हाथ किसी के
पर अभी मैं किसी महकती बांहों में नहीं
चाहता है कोई समेट लेना
पर अभी भी मुझमें कुछ सख़्त पिघला नहीं
ग़र होती जो मुहब्बत मुझे
तो तेरी हर कही अनकही ना होती
गर होते तुम संग जो
फिर ज़माने से शिक़ायतें ना होती
तेरी ओर से नहीं रोकती दीवारें कोई
फिर कैसी अनगिनत दीवारें मैंने बना डाली
उन खुले हाथों में
सिमटुंगी जिस रोज मैं
कभी ना बिछडने को
जीने लगुँगी उसके आगोश को
तब मुहब्बत की देहरी पर
मेरा क़द़म होगा !!
प्रेम वो नहीं जो हम तुम करते है
प्रेम कुछ और है
तुम तुम रहते हो मैं मैं रहती हूं
कुछ तुम चाहते हो
और बहुत कुछ मैं
नहीं ना ऐसा कोई प्रेम है
हसरतें फितरतें कवायदे और शिक़ायतें
ईश्क़ की आहट को बर्दाश्त नहीं कोई फ़िज़ुल रिवायतें
जिस रोज होकर भी ना रहूं
सो कर भी ना सो सकूं
मर कर भी ना मर सकूं
और जीकर भी ना जी सकूं
तुझमें , तुझसे , तुझ तक ,
तुझ को ही पुकार सकूं
तब उस दिन प्रेमवर्षा संग
बहती जाऊं .. बहती जाऊं
बरसे जो नित बरसाना वास से
तरसे जो नित वृन्दावन आस से
भजे हरे हरे नित कालिन्दी घाट से
रहते नित गोवर्धन निकुंज भाव से
भुल रहे घुल रहे डुब रहे रोवत रहे
पावत वहीं रहे समीप वहीं रहे युगल अनुराग से
लाड वां को मोसे होय नैन काहे सुखे रहे
नेह मोरा वां सु होय रोय बिन स्वांस काहे रहे
आस मन में हजार पालुं
राग प्रेम के दो अलापुं
हँसी हँसी में युगल पद पानो चाहूं
ना नेह जानु ना विरह मानुं
धिक् धिक् तृषित रे जो युगल भाव
सस्तो जानुं
हित हिय वल्लभ रसिका प्राणाधार
मंजरी हुई बुहार रही निकुंज द्वार
चित्र विचित्र विपिन नव नित देखत श्रृंगार
किंचित् तनिक मन लालजु क्षणिक निहार
तुम सजते हो तो बस फिर और क्या रह जाता है ... बस युं देख देख कर ही हाय !! ...
बस आँखों सामने बने रहोगें ना लाल जु !! तृषित की तृषा वहीं ठोर चाहती है
बेर करे कि प्रेम करे वां को न जान सकूं
न आय रहे न बुलाय रहे प्राण मो में काहे फुंकत रहे
मैं कछु ना जानु सखी
प्रेम कर मैं अब भी जीवत रही
ना तडप रही न मर रही
विरह अगन में ना झुलस रही
हँसत रही खेलत रही सोवत रही
खाय पिय रही झुठी बातन बनाय रही
नेह जो तनिक सांचों निभाती मैं
संग ना पाय वाने वहीं मर जाती मैं
मैं सोता हूँ ...
खाता-पीता हूँ ...
तरह तरह के क्रिया कलाप
करता हूँ ...
अधिकत्तर व़क़्त मैं ख़ुद पर लगा रहा हूँ ...
और कुछ ना मिला ...
जानवर भी कर लेते है इतना !!
पर दो मिनट तुमसे जुडुं तो
हिसाब चाहिये !
प्रेमी कहा जाऊं ...
मुझे कुछ मिले ...
और ना मिला तो
फिर लौट जाता हूँ ...
वहीं मेरी दुनिया...
जहाँ तुम दर्शक ...
मेरा मैं अभिनेता !!
मुझे तरह तरह के भ्रम है
फिर तुम से प्रेम ... ???
दूर ही हूँ अभी ...
तुम से नहीं
ख़ुद से भी !!
यहीं चलेगा ...
पर तुम तब भी मुस्कुराते हो ...
काश पुछ ही लेता ...
तुम इतना क्युं मुस्कुरा रहे हो ...
क्या ग़म है जिसको छिपा रहे हो !!
सत्यजीत तृषित
ना जाने क्युं कहा जाता है ...
प्रेम करो ... मानो ... उसे अपना
बनाओ !
उसके पथ पर चलो...
जब्की !! सच तो यें है
कहना तो यें चाहियें ...
कोई तुमसे बेहद प्रेम करता है
तुम बस आँखे खोल कर देख ही
लो !
प्रेम करना भी नहीं है ...
केवल इतना ही जानना है कि ...
कोई हमसे बेहद सच्चा प्रेम किये है !
जब्की हमने देखा भी नहीं... समझा भी नहीं तो भी !!
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