टुक रंगमहलमें आव कि निरगुन सेज बिछी ।
जहँ पवन गवन नहिं होय जहाँ जा सुरति बसी ॥१॥
जहँ त्रैगुन बिन निरबान जहँ नहिं सूर-ससी ।
जहँ हिल-मिलकै सुख मान मुकतिकी होय हँसी ॥२॥
जहँ पिय-प्यारी मिलि एक कि आसा दुईनसी ।
जहँ चरनदास गलतान कि सोभा अधिक लसी ॥३॥
मो बिरहिनकी बात हेली, बिरहिन होइ जानिहै ।
नैन बिछोहा जानती री हेली, बिरहै कीन्हों घात ॥टेक॥
या तनकूँ बिरहा लगो रीहेली, ज्यों घुन लागो काठ ।
निसदिन खाये जातु है, देखूँ हरिकी बाट ॥
हिरदेमें पावक जरै री हेली, तपि नैना भय लाल ।
आसूँपर आसूँ गिरै, यही हमारो हाल ॥
प्रीतम बिन कल ना परै री हेली, कलकल सब अकुलाहिं ।
डिगी परूँ, सत ना रहौ कब पिय पकरैं बाँहिं ॥
गुरु सुकदेव दया करैं री हेली, मोहि मिलावै लाल ।
चरनदास दुख सब भजैं, सदा रहुँ पति नाल ॥
श्यामा जू! सेवा सुख कब पाऊँ।
कोटि जन्म बीते प्रिया यों ही,भटक भटक मैं वयस बिताऊँ।
करहु कृपा वृषभानुनंदिनी पद-सरोज की सन्निधि पाऊँ।
मेरो कौन सगौ या जग में,जिसको अपनी व्यथा सुनाऊँ।
श्यामा जू तुम्हारी होकर भी,तब कृपा को क्यूँ बिलखाऊँ।
तब पद-पंकज सम्पति मेरी,ताहि में नित चित्त लगाऊँ।
चन्द्रानन की रहूँ चकोरी,भ्रमरी बन चरनन गुन गाऊँ।
सुहृद स्वामिनी कृपा करिहौ,हौं तेरी चेरी कहलाऊँ।
सुन सुरत रँगीली हो कि हरि-सा यार करौ ॥टेक॥
जब छूटै बिघन बिकार कि भौ जल तुरत तरौ ॥१॥
तुम त्रैगुन छैल बिसारि गगनमें ध्यान धरौ ॥२॥
रस अमिरत पीवो हो कि बिषया सकल हरौ ॥३॥
करि सील-संतोष सिंगार छिमाकी माँग भरौ ॥४॥
अब पाँचों तजि लगवार अमर घर पुरुष बरौ ॥५॥
कहैं चरनदास गुरु देखि पियाके पाँव परौ ॥६॥
नमो नमो बृंदाबनचंद ।
नित्य, अनन्त, अनादि, एकरस, पिय प्यारी बिहरत स्वच्छंद ॥१॥
सत्त-चित्त-आनंदरुपमय खग-मृग, द्रुम-बेली बर बृंद ।
भगवतरसिक निरंतर सेवत, मधुप भये पीवत मकरंद
प्रेमसमुद्र रुपरस गहिरे, कैसे लागै घाट ।
बेकार्यो दै जानि कहावत जानि पनोकी कहा परी बाट ॥
काहूको सर परै न सूधो, मारत गाल गली गली हाट ।
कहि हरिदास बिरारिहि जानौ, तकौ न औघट घाट ॥
ज्योंहीं ज्योंहीं तुम राखत हौ त्योंहीं त्योंहीं रहियतु है हो हरि ।
और अचरचै पाइ धरों, सु तौ कहों कौनके पैंड भरि ॥
जदपि हौं अपनो भायो कियो चाहौं, कैसे करि सकौं जो तुम राखौ पकरि ।
कहि हरिदास पिंजराके जनावरलौं, तरफराइ रह्यौ उड़िबेको कितो उकरि ॥
हित तौ कीजै कमलनैनसों, जा हित आगे और हित लागो फीको ।
कै हित कीजै साधुसँगतिसों, जावै कलमष जी को ॥१॥
हरिको हित ऐसो जैसो रंग-मजीठ, संसारहित कसूंभि दिन दुतीको ।
कहि हरिदासहित कीजै बिहारीसों और न निबाहु जानि जी को ॥२॥
उड़ा जा रहा प्रकृति पर रथ - विमान आकाश |
मानो हैं हय चल रहे , हरि - पग - तल - रथ - रास ||
दिव्य रत्नमणि - रचित अति द्युतिमय विमल विमान |
चिदानन्दघन सत् सभी वस्तु - साज - सामान ||
अतुल मधुर सुन्दर परम रहे विराजित श्याम |
नव - नीरद - नीलाभ - वपु , मुनि - मन -
हरण ललाम ||
पीत वसन , कटि किंकिणी , तन भूषण
द्युति - धाम |
कण्ठ रत्नमणि , सौरभित सुमन - हार अभिराम ||
मोर - पिच्छ - मणिमय मुकुट , घन घुँघराले केश |
कर दर्पण - मुद्रा वरद विभु - विजयी शोवर वेश ||
शोभित कलित कपोल अति अधर मधुर मुसुकान |
पाते प्रेम - समाधि , जो करते नित यह ध्यान ||
जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे ! जय
जय श्रीराधे !
पद सँख्या —{ १७३ }
( दोहा )
गावो न गोपाल मन लाय के निवारी लाज ,
पायो न प्रसाद साधु-मंडली में जाए के !!
धायो न धमक वृन्दाविपिन की कुंजन में,
रहो न शरण जाय बिठ्लेश राय के !!
नाथ जू न देख छ्क्यो छिन है छबीली छबि ,
सिंहपोरि परयो नहि शीश हूं नवाए के !!
कहें हरिदास तोहे लाजहू न आवे नेक ,
जनम गवायो न कमायो कछु आय के !!
प्रभो! कृपा कर मुझे बना लो अपने नित्य-दासका
दास।
सेवामें संलग्न रहूँ उल्लसित नित्य, मन हो न उदास॥
चिन्तन हो न कभी भोगोंका, नहीं विषयमें हो
आसक्ति।
बढ़ती रहे सदा मेरे मन पावन प्रभु-चरणोंकी भक्ति॥
कभी न निन्दा करूँ किसीकी, कभी नहीं देखूँ पर-
दोष।
बोलूँ वाणी सुधामयी नित, कभी न आये मनमें रोष॥
कभी नहीं जागे प्रभुता-मद, कभी न हो तिलभर
अभिमान।
समझूँ निजको नीच तृणादपि, रहूँ विनम्र, नित्य
निर्मान॥
कभी न दूँ मैं दुःख किसीको, कभी न भूल करूँ
अपमान।
कभी न पर-हित-हानि करूँ मैं, करूँ सदा सुख-हितका
दान॥
कभी न रोऊँ निज दुखमें मैं, सुखकी करूँ नहीं कुछ चाह।
सदा रहूँ संतुष्ट, सदा पद-रति-रत, बिचरूँ बेपरवाह॥
प्राणि-पदार्थ-परिस्थितिमें हो कभी न मेरा राग-
द्वेष।
रहे न किंचित् कभी हृदयमें जग-आशा-ममताका लेश॥
मस्त रहूँ मैं हर हालतमें, करूँ सदा लीलाकी बात।
देखूँ सदा सभी में तुमको, सदा रहे जीवन अवदात॥
पद्रत्नाकर पद संख्या – ८७
श्री हरि ।।
नीच मैं मूढ़ दोष की खान।
बीत रह्यौ नर-जन्म बृथा ही, मानि रह्यौ मतिमान॥
सुत-बित-रमनि-रमन पद-गौरव, जो छनभंग, अनित्य।
ड्डँस्यौ रैन-दिन मन इन बिषयनि, भूलि सत्य सुख नित्य॥
समुझौं-समुझावौं नित सब कौं, दुःखजोनि सब भोग।
पै मेरौ मन रयौ इनहि में, छाँडि कृष्न-संजोग॥
सोवत, रोवत, पढ़त, खात, खेलत बीत्यौ बहु काल।
धन-जन मान-बड़ाई-हित नित चिंतातुर बेहाल॥
मानव-जन्म सुदुर्लभ हरि नै बड़ी दया करि दीन्हौ।
सो हौं प्रभुहि बिसारि, भोग-रत, पाप-निकेतन कीन्हौ॥
अब हे सहज दयानिधि! अपनौ बिरुद देखि अपनाऔ।
पाप-पंक सौं खींचि तुरत, निज चरननि माँझ बसाऔ॥
पूज्य हनुमानप्रसादजी पोद्दार
संग्रह: पद-रत्नाकर
नारायण । नारायण । नारायण । नारायण ।
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