जय राधागोविन्द
#माधुर्य-कादम्बिनी#
(7). सप्तम्यमृतवृष्टि:
(2). भक्तके द्रवीभूत चित्तमें भगवान् के अंगोंका अनुभव:-
भावानुवाद:-
Part (7.2.1)
इस भावके उदित होनेपर जातरति भक्तको व्रजराजनन्दन श्रीकृष्णके अंगोंकी श्यामलता, उनके अधर और नेत्रोंकी अरुणिमा मुखचन्द्रकी म्रदु मुस्कानकी शुभ्रता और उनके वस्त्र भूषण आदिकी पीत छटा आदिका अनुभव होने लगता है। तब उसका कन्ठ अवरुद्ध हो जाता है और नेत्रोंसे विलगित अजस्त्र अश्रुधारा द्वारा अपनेको अभिसिक्त करता है। वह भक्त श्रीकृष्णकी मधुर मुरली ध्वनि, उनके नुपुर आदिकी झंकार ध्वनी, उनके मधुर कंठकी सुरीली वाणी और उनके द्वारा उनके चरणोंकी सेवाका साक्षात् आदेश सुनकर अपनेको चरितार्थ करनेके लिए स्थान-स्थानपर प्रदक्षिणा करता है, मानो उनका अनुसंधानकर उनको ढूंन्ढ़ने लगता है। कभी कान उठाकर, कभी नीचेकर निश्चल होकर खड़ा हो जाता है। इस प्रकार कभी व्रजेन्द्रनन्दनके करकमलोंका स्पर्श कैसा है, उसका मानों अनुभवकर रोमांचित हो उठता है। कभी उनके श्रीअंगको सौरभको सुंघकर प्रफुल्ल नासिका द्वारा क्षण-क्षणमें श्वास लेकर पुलकित होता है।
जय राधागोविन्द
#माधुर्य-कादम्बिनी#
(7). सप्तम्यमृतवृष्टि:
(1). भाव द्वारा श्रीकृष्ण प्राकट्य:-
पीयूषवर्षिणी-वृत्ति:-
Part (7.1.7)
इस भावभक्तिके एक परमाणु द्वारा ही हृदयका सारा अज्ञान और अविद्या इत्यादि अन्धकार सम्पूर्ण रूपसे दूर हो जाता है। इस भावरूपी पुष्पका परिमल चिन्मय लोक तक पहुँचकर उसके मधुपानके लिए भगवान् श्रीमधुसुदनको भी आमन्त्रणपूर्वक प्रकट करा देता है। अर्थात विकसित कुसुमके सौरभसे आकृष्ट और उन्मादित होकर जिस प्रकार भ्रमर स्वयं पुष्पके निकट आगमनकर परमासक्तिके साथ उसका मधुपान किया करता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीमधुसुदन भी भक्तके हृदयके भाव कुसुमके सौरभसे आकृष्ट होकर स्वयं भक्तके हृदयमें आविर्भूत होकर इस पुष्पके मकरन्दको पान करके मत्तहो जाते हैं। केवल यही नहीं भावके द्वारा भक्तकी चित्त वृत्ति इस प्रकार द्रवित हो जाती है कि वह श्रीभगवान् के अखिल अंगोंको स्नेहसे सिक्त करनेमें समर्थ होती है। यह भाव इतना पवित्र होता है कि उच्च कुलमें जन्म आदिकी तनिकभी अपेक्षा न कर चाण्डालोंके आधारमें भी आविर्भूत होकर उसे ब्रह्मा इत्यादिके लिए प्रणम्य बना देता है।
जय राधागोविन्द
#माधुर्य-कादम्बिनी#
(7). सप्तम्यमृतवृष्टि:
(1). भाव द्वारा श्रीकृष्ण प्राकट्य:-
पीयूषवर्षिणी-वृत्ति:-
Part (7.1.6)
भावभक्तिके दो गुण हैं- मोक्षलघुताकृत और सुदुर्लभा। उसमेंसे मोक्षलघुताकृतके सम्बन्धमें कहा गया है-
" हृदयमें लेशमात्र भी भगवत-रतिके उदित होनेसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- ये चतुर्वर्ग पुरुषार्थ तृणके समान तुच्छ है।" (भ.र.सि. १/१/३३) श्रीलरूपगोस्वामीपादने श्रीनारदपञ्चरात्रसे प्रमाण उद्धृत कर कहा है- "मुक्ति आदि सभी सिद्धियाँ और विषय भोग आदि हरिभक्तिरूपा महादेवीकी दासीकी भाँति उनके पीछे-पीछे चलती हैं।"
सुदुर्लभाके सम्बन्धमें- "बहुत समय तक विषयोंसे आसक्तिरहित होकर नाना प्रकारके साधन द्वारा भी हरिभक्ति सुलभ नहीं है और श्रीहरिभी इसे सहज ही प्रदान नहीं करते। इसलिए भी यह सुदुर्लभा है।" अर्थात जब तक प्रेमभक्तिमें प्रगाढ़ आसक्ति उत्पन्न नहीं होती, तब तक श्रीहरि इसे प्रदान नहीं करते।
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