कौन हूँ मैं कैसी हूँ
क्या जानोगे तुम मुझको
बाहर देख रहे तुम प्रियतम
भीतर कब देखोगे
निर्मल दिखती तुमको
प्यारे ये प्रेम तुम्हारा था
सदा विकारी दोषधरा मैं
उपजाती जो कलुषितता
न जाने कितने युग बीत चले
पावन न हुआ अन्तस् मेरा
नित्य लजाती देख स्वयं को
पाती निरा तममय चित को
कोई प्रकाश न है मुझमें अब
बस छाया हूँ काली काली
दौड रही जो पाने को छूने को
एक किरण स्मृति की तेरी
कोई कहा मिट्टी कर दूंगा
तुम बोले अपनी कर लूंगा
अपनाये तुम सब दोष भुलाकर
पर मैं कैसे भूंलू खुद को
नित्य गिर रही निज दृष्टि में
किस विधी नजर मिलाऊं तुमसे
तुम्हारी प्रीति अविरल है कितनी
पर ये तम कूप हैं मेरे
जो भरते ही नहीं कभी भी
जानेगा क्या कोई इनको
सब समझें उज्जवल सी मुझको
नाम मृदु होने से ही क्या
मृदुता पा ली है मैंने
हिय तो निरा पाषाण अभी भी
न फूटा रस अंकुर तनिक भी
मृदुला
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