रज रानी
कहाँ सहेजुं तुम्हें प्यारे प्राणधन श्यामसुन्दर ॥ कितने कोमल हो तुम जीवन के जीवनधन सर्वस्व ॥ क्या इस सृष्टि में कुछ भी है ऐसा जिससे तुम्हें स्पर्श कर सकुं ॥ तुम्हें देख ऐसा लगता कि कुछ भी नहीं मेरे पास जो तुम्हें छू सके ॥कितनी पीडा होती है अपनी अक्षमता पर हृदयधन ॥ चाहें जो कर लिया जावे पर क्या कभी वह प्राप्त हो सकता जो तुम्हारी कोमलता को स्पर्श करने की पात्रता रखता हो ॥ जिस प्रकार नवजात शिशु को स्पर्श करने में भी भय लगता कि तनिक सा कष्ट ना होवे उसे पर फिर भी सहेजना तो है ही उसे तो कितना प्रयास किया जाता कोमल से कोमल वस्त्र आदि में लपेट परम सुकुमारता से अंक में सहेजा जाता , हृदय से लगाने में भी सावधानी रखी जाती , तो जो ऐसे नवजात शिशु से भी अनन्त गुणा कोमल है उसे कहाँ रखें ॥ शिशु की कोमलता स्वभाविक होती ही है परंतु ममत्व से और अधिक बढ जाती है ॥ किसी पर के लिये संभवतः वह उतना अमुल्य न हो जितना अपने माता पिता के लिये होता है स्वजनों के लिये होता है ॥ इसी प्रकार संसार के लिये शायद तुम ईश्वर हो भगवान हो पर हमारे लिये तो हृदय को परम कोमल पुष्प हो जिसे सहेजें को प्राण भी कठोर प्रतीत हो रहे हैं ।तो जैसे भीतर से उत्तर दे रहे ब्रज में सहेज मोहे ॥ ब्रज में ....॥ हां सही तो कह रहे संपूर्ण सृष्टि में मात्र ब्रजमंडल ही तो है जो परम कोमलता से धारण किये हुये है ब्रजराजकुमार को ॥अन्य किसी में यह सामर्थ्य ही कहाँ है ॥ वही तो सीप के समान अपने हृदय में कृष्ण रूपी मुक्ता को छिपाये हुये है । पर यह कोई साधारण सीप नहीं है ,वह तो अति कठोर होता न परंतु यह ब्रज रूपी सीपी तो उतना ही कोमल है जितना स्वयं भीतर को मुक्ता रूपी कन्हाई ॥ जैसे सीप अपने हृदय रत्न की रक्षा करता प्राणों में सहेज वैसे ही यह ब्रज अपने कोमलता के सारस्वरूप श्याम को सहेजे रहता ॥ परंतु कैसे ....॥वास्तव में ब्रज कोई स्थूल तत्व है ही नहीं ,ये तो महाभाव स्वरूपिणी के ही हृदय भाव हैं ना ॥ वही तो धारण कर सकते श्यामसुन्दर को ॥ श्यामसुन्दर का सुख भी ब्रज में ही निहित है ॥ जिस प्रकार परम सुकोमल पुष्प को स्पर्श भी कोमलता से किया जावे यह उस पुष्प का अधिकार है वैसे ही श्यामसुंदर का अधिकार है ब्रज में वास करना ॥ हम चाहें ब्रज से बाहर रहें पर वे केवल और केवल ब्रज में ही रहें सदा ॥ और जो नित्य हमारे हृदय वासित हैं उन्हें क्या दें हम ॥ कैसे अपने हृदय को भावों सी कोमलता प्रदान करें कि उसमें रहने वालेे प्यारे कृष्ण को कठोरता अनुभव न होवे ॥ तो नित्य प्रति सेवन करिये रज रानी का ॥ कि वही हमारे हृदय में प्रवेश कर उसमें जन्म जन्मांतरों से व्याप्त कठोरता का शमन करने में समर्थ हैं ॥ हृदय में समा उसे प्यारे कुंवर लाल के वास की योग्यता दे देंगी ये रज रानी ॥ बाहर भीतर सदा धारण करिये इन्हें कि अन्तःकरण को मांज मांज शुद्ध कर देवेंगी ये परम भाव स्वरूपा ॥ ना कोई साधारण रज ना जानियो इन्हें श्यामसुन्दर तो लोटते नित्य इनमें ॥ पूछा उनसे कहाँ रखुं तुम्हें तो बोले ब्रज रज में रख दे ॥ वहीं रहना चाहता सदा ॥ तो हृदय वासी कृष्ण को नित्य स्पर्श दीजिये इन रजरानी का ॥ परम सुख होगा इनके स्पर्श से उन्हें ॥और उनका सुख ही तो अभीष्ट हमारा ॥इन्हीं के सहज अनुग्रह से हृदय स्वयं भावित हो उठेगा ॥भाव में ही तो नित्य वास प्यारे श्यामसुन्दर को ॥
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