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झुलन भाव सेवा , मृदुला जु

झूलन भाव सेवा

आकाश में चहुँ दिशि उमड़ घुमड कर घनघोर घटाओं ने दिवस को रात्रि कर दीना है ॥ सखि के मन की अभिलाषा ही काली घटाओं के रूप में नभ में छा गयी है ॥ रसभीनी शीतल मंद सुगंधित समीर बह कर तन मन को रसमय कर रही है ॥ सखि ने आज बडों ही जतन से सुंदर हिंडोला सजायो है ॥ हिरदे की चौकी है और नेह की डोरी है ॥ सुंदर फूलों ये प्रिया लाल जू आज हरित वरन को वसन धारण करवाये हैं सखिन ने ॥ चहुँ ओर छायी हरियाली को ही जैसे युगल लाडलों ने स्वीकार कर प्रकृति के अणु अणु में स्वयं को ही भर दीना है ॥ प्रकृति चकित सी निहार रही है ये सोचती कि ये दोऊ रसघन उसमें व्याप्त हो रहे हैं या वही इनसे एकाकार हो गयी है ॥ वृक्ष द्रुम लतायें पल्लव पुष्प सभी प्रियालाल मय हो रहे हैं ॥ प्रकृति को अंगीकार जो कर लीना है हरित वसन रूप में या ने ॥ युगल धन को अति ही सनेह से सखि ने हिंडोले पर विराजमान कर दीना ॥ दोनो के एक हिय में सखि का अपार नेह रस होकर बरस रह्यो है ॥ धीरे धीरे नेह की डोरी से झुला रही सखि या दोउ को ॥ सखि को तो इनकी परस्पर रस निमग्नता ही वांछित सो दोनों के हिय में रस लालसा बन खिलने लगी है सखि ॥ उधर हिंडोला गतिमान हो रहा इधर प्रिया लाल रस में डूबन लग पडे हैं ॥ सखि तो सदा एक ही देखन चाहवे दोऊ को सो अंग अंग प्रति सरस स्पर्श हो रह्यो है ॥ मधुर चितवन प्यारी की मनहर को मन हर रही ॥ कोई सखि मल्हार गा रही है जा पर मयूर नृत्य से संग दे रहे हैं ॥ प्यारी को शीश प्रियतम के कांधे पर और प्रियतम को कर प्यारी के कांधे पर ॥ अलकावलियाँ परस्पर उलझ उलझ कर सुलझ रहीं हैं ॥ प्यारी को अंचल लहरा लहरा मोहन के मन को मुदित कर रह्यो है ॥ प्यारे ने प्यारी की चिबुक को कर से उठा नयन सन्मुख कर लीनो ॥सुरत पगे रसभरे नयन प्रियतम के प्यारी के मुखकलम को निर्निमेष पान करन लागे कि प्यारी ने लजा कर चूनर से ओट कर लीनी ॥श्यामा की ऐसी छवि पे प्यारे जू बारबार बलि बलि जा रहे ॥ तृषित ।

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युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात